Friday 22 November 2013

एक ब्लॉगर की दुखभरी कथा

Sensible  तो बहुत लिखा है मैंने, आज सोचा कि कुछ Nonsense भी लिखा जाए. कुछ Idiotic , Stupido , Silly, Absurd, Foolish, Imbecile,  किस्म का लिखा जाए.  अब इसकी वजह ना पूछिए, क्योंकि जवाब इसका सीधा सा ये है कि हम  बोर हो गए हैं, जी हाँ सही पढ़ा आपने "बोर".

बोर हो गए हैं इस ब्लॉगिंग से. कितनी मेहनत  से लिखते हैं, मगर क्या फायदा, कोई पढ़ने वाला ही नहीं, कितना ज़ुल्म है ये एक लेखक पर कि वो अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय दे रहा है और कोई देखने पढ़ने सुनने वाला ही नहीं (लानत है ).

रुकिए ज़रा, शायद आप मुझे ये उपदेश देना चाहेंगे कि आजकल जिसे देखो ब्लॉगर बन गया है और ज़रा सा कुछ ऐसा वैसा चार लाइन लिख के खुद को लेखक मान बैठा है. जिसे देखो नई  नई   कविता रच रहा है, कोई हाइकू तो कोई काइकू (ये भी काव्य की  एक विधा है, एक श्रीमान है जो प्रतिदिन फेसबुक के एक पेज पे अपना काइकू  छापते हैं )  तो कोई गीत लिख रहा है. यानि हिंदुस्तान में साहित्य का भविष्य अति उज्जवल है और जब इतनी सारी  प्रतिभाएं मैदान में है तो ज़ाहिर है कि केवल बहुत अच्छा लिखने वाले को ही तो अटेंशन, अवार्ड, रिवॉर्ड  मिलेगा बाकी तो सब संघर्षरत, upcoming , budding वाली केटेगरी में ही संतोष कर सकते हैं.

पर खैर ये इंटरनेट है, संसार में ऊपर ईश्वर है और  नीचे गूगल है अर्थात सर्वव्यापी, सर्वसमर्थ, सर्वज्ञानी, ध्यानी और संगी साथी सब कुछ है. दुनिया में मुझ जैसे निरीह, संसाधन विहीन, दूरस्थ क्षेत्रों में रहने वाले लेकिन प्रतिभावान लोगों की पीड़ा को गूगल ने ही समझा और ब्लॉगिंग की  सुविधा उपलब्ध करवाई। (जय हो गूगल महाराज की). अब यहाँ तक तो ठीक है कि सुविधा मिल गई लिखने की और across  the  globe  पहुँचने की भी. पर भाई, खाली ब्लॉग पर पोस्ट कर देने से क्या होता है, खाली फेसबुक पर लिंक पोस्ट करने या एक पेज बना देने से भी क्या होता है ??? कुछ भी नहीं होता, बिलकुल नहीं होता।


आप भूल रहे हैं कि ये विज्ञापन, प्रचार प्रसार का युग है.  बढ़िया पैकिंग और उसकी मार्केटिंग का युग है, इसी बात को ध्यान में रखकर गूगल ने ब्लॉग पर फॉलोअर  का आप्शन दिया, फेसबुक ने भी लाइक्स, फॉलोअर के आप्शन लगा रखे हैं. लेकिन श्रीमान रुकिए, ठहरिये, ये फॉलोअर, कमेंट्स और लाइक्स ऐसे कैसे मिल जायेंगे,  सीधा सादा  give and  take  वाला मामला है. और इसी बात को ध्यान में रखते हुए blogadda , indiblogger , संकलक, हमारी वाणी, ब्लॉगोदय वगैरह websites हैं. जी हाँ, मैंने भी इनकी सदस्यता  ले रखी  है और मुझे इनसे कोई शिकायत भी नहीं (हो भी तो किसी की सेहत को क्या फर्क पड़  जाएगा) शिकायत तो मुझे तब होती है जब मैं इन साइट्स पर बेहद बकवास किस्म की तुकबंदी जिसको कविता या कहानी कहा जाता है या कुछ भी बेसिर पैर की  तस्वीर  पर होने वाली कमेंट्स और वोटों की  बारिश को देखती हूँ. (हाँ आप कह लीजिये कि मुझे उन लोगों से बड़ी जलन हो रही है, क्यों आपके ख्याल से नहीं होनी चाहिए क्या ) ज़रा सोचिये indiblogger  पर पचासों जाने अनजाने लोगों को वोट करने के बाद भी जब मेरी पोस्ट पर गिनती के वोट आते हैं या आते ही नहीं तो मुझे कैसा लगता होगा। कई बार बिकुल औसत या बोरिंग सी कहानी पर भी तारीफों की बाढ़ आई रहती है और मेरी कहानियाँ और निबंध बेचारे शायद औसत की श्रेणी से भी बाहर है. (थोड़ी सहानुभूति जागी ?? )

उस पर तुर्रा ये है कि कविता और हाइकू  लिखने वालों ने अच्छा खासा स्पेस घेर रखा है, मेरे ख्याल से दो तिहाई लोग तो सिर्फ कविता ही लिखते और पढ़ते हैं (शायद सोते बिछाते भी हैं). अब कविता के लिए रोज़ रोज़ नए विषय आ नहीं सकते, इसलिए रो पीट के वही रोमांस का खाता खोल के बैठ जायेंगे या बिरहा का गीत गाया  जाएगा या कोई भूले बिसरे दिन याद कर रहा है. (उम्मीद है किसी कवि की नज़र इस पर नहीं पड़ेगी वर्ना उनकी काव्यात्मकता आक्रामकता में बदल जायेगी)

लेकिन इस सबका एक मजेदार पहलू भी है,  पता नहीं आप में से कितने लोगों ने ध्यान दिया है या शायद ना भी दिया हो. पर एक सीधा सा तरीका है कि भाई अगर किसी ने आपके पोस्ट पे कमेंट किया या वोट किया है तो श्रीमान/सुश्री/श्रीमती जी, ज़रा शिष्टाचार दिखाइये और … जी हाँ, ये एक किस्म का शिष्टाचार ही है, वर्ना किसके  पास टाइम पड़ा है कि आपके लिखे को पढ़ने के लिए अपनी आँखें स्क्रीन पर खपाए। और फिर क्या आप नहीं चाहते कि आपके ब्लॉग पर फॉलोअर्स की  एक लम्बी लिस्ट दिखे, हर पोस्ट पर इत्ते सारे कमेंट्स आये, फेसबुक पर फैन हो और ये हो, वो हो (पता नहीं क्या क्या हो )  (समझदार को इशारा काफी है, बेवकूफों का इलाज नहीं है)  पर आप कहेंगे कि इसमें ऐसा क्या मजेदार है, ये तो साधारण बात है.  

ख़ास बात है कमेंट्स की भाषा। ... अगर हिंदी के ब्लॉग हैं (उसमे भी कविता के मरीज़) तो कमेंट्स इस तरह आते हैं … अत्यंत मार्मिक, मर्मस्पर्शी, अत्यंत भावपूर्ण, अर्थपूर्ण, अत्युत्तम, सार्थक अभिव्यक्ति और सिर्फ ये भारी भरकम विशेषण ही नहीं इनके साथ शुद्ध हिंदी की  वाक्य रचना, जिसे पढ़कर कई बार मेरी हिंदी भी इम्प्रूव हो जाती है.  और मामला यही नहीं रुकता,  वाक्य के अंत में कई लोग सादर, आभार भी जोड़ देते हैं. और यही एक चीज़ मेरे पल्ले नहीं पड़ती कि हर बात के लिए आभार का भार उठाने की  क्या ज़रूरत ? अगर किसी ने आपके पोस्ट पर कमेंट किया तो उसका आभार तो समझ आया पर हर बात में बिना बात में भी आभार और सादर की पूंछ और पुछल्ला !!!! तब मेरा मन करता है कि  इस आभार को सादर सर पे दे मारा जाए. (कुछ तो इस्तेमाल हो ये भारी  भरकम शब्द) जाने क्यों ऐसे समय में अंग्रेजी ज्यादा अच्छी लगती है, शायद इसलिए कि उसमे एक औपचारिकता का भाव है, बेवजह हर बार कमेंट में  Thank You और Regards  जैसे शब्द आमतौर पर नहीं लिखे जाते जबकि हिंदी में इनका इस्तेमाल  एक फैशन की तरह  हो गया है और इसीलिए ये "आदर सहित, सादर और आभार"  के  शब्द बोझिल लगने लगते हैं. (हिंदी की  बुराई नहीं कर रही, पर हर जगह शुद्ध हिंदी का हथगोला मारने वालों को मेरा निवेदन है कि भाई कभी कभी अंग्रेजी से भी काम चला लो क्यों हर बार, हर बात में हिंदी के शब्दकोष को खंगालते हो)

पर खैर, अंग्रेजी के ब्लॉग्स में भी कम ज्यादा यही स्थिति है, फर्क सिर्फ इतना कि वहाँ भाषा ज़रा अनौपचारिक किस्म की होती है, बाकी वही कमेंट बैक-कमेंट, वोट बैक-वोट का ही सारा किस्सा है. पर अंग्रेजी ब्लॉगर्स  को एक फायदा है, ज्यादातर ऑनलाइन लेखन प्रतियोगिताएं (कांटेस्ट) जिनमे सच में बड़े अच्छे  इनाम मिलते हैं ( cash and goodies) वो सब अंग्रेजी में लिखी पोस्ट्स के लिए हैं. हिंदी वालों को उसमे कोई स्कोप नहीं। (यह अत्यंत दुःख का विषय है)

चलिए जी, बहुत कह लिया, निकाल ली अपने मन की  भड़ास, बहुत दिनों से मन में ये सब चल रहा था. हाँ हाँ आप कह लीजिये कि जलखुकड़ी होना अच्छी बात नहीं पर अब क्या करू, इतने जतन  किये मैंने, जाने किस किस  अजनबी के ब्लॉग्स को पढ़ा; फिर कमेंट्स भी किये, वोट भी किये, उनको फॉलो भी किया पर उसका सुफल उतना नहीं मिला जितना मिलने की उम्मीद थी. खैर, ये जलन भी अब पुराना किस्सा हो गई, अब हमने मोह माया त्याग दी है. (हारे को हरी नाम, You  See)  देखा जाए, तो हम सब इस खेल को समझते भी हैं और जानते भी हैं और फिर Recognition किसे नहीं चाहिए; इसलिए ये अजीब किस्म का उबाऊ खेल (वोट, कमेंट वगैरह) चलता रहता है. 



( मैं जानती हूँ और मानती भी हूँ कि ब्लॉगिंग की दुनिया और यहाँ लिखा जाने वाले  कंटेंट का एक significant  हिस्सा इस खेल की सीमाओं से नहीं बंधा, लोग पढ़ते और सराहते हैं क्योंकि सचमुच बेहतरीन चीज़ें लिखी जा रही हैं पर इस "अजब गज़ब वाहवाही" वाले    खेल को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता )


Image Courtesy : GOOGLE

Monday 18 November 2013

राधा बाई की लव स्टोरी --- अंतिम भाग

इस से पहले कि कोई सवाल जवाब हो, राधा ने खुद ही बताना शुरू किया कि पिछले कुछ दिन से लगातार  लक्ष्मण फोन पर उस से बात कर रहा था  और शादी के लिए तैयार हो गया है. उसने वकील से बात भी कर ली है और अब दिन भी तय हो गया है.

"क्याआअ, तूने शादी की तारीख भी तय कर ली." माताजी अभी तक इस आकस्मिक ट्विस्ट को  सम्भाल नहीं पा रही थी.

"मैंने नहीं किया, लक्ष्मण ने सब ठीक कर दिया है." राधा ने शर्माते हुए कहा.

"तो तू कब शादी कर रही है?" मुझे नई बाई ढूंढने की फिकर हो रही थी.

"इसी  महीने की छब्बीस को." राधा ने एक चौड़ी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया।


"इतनी जल्दी !!!!!!! तू मज़ाक कर रही है ?"  माताजी के चेहरे पर थोड़ी चिंता दिखी।

"नहीं,  सब तय कर लिया है. मैं दो या तीन दिन पहले से ही काम छोड़ दूँगी। अभी घर में किसी को  कुछ नहीं बताया और ना बताउंगी। उनको पता चलेगा तो मेरा घर से निकलना ही बंद कर देंगे। आप भी किसी से कुछ मत कहना,  किसी से भी नहीं।" आखिरी शब्दों में राधा का डर , उसकी आशंकाएं और आने वाले समय की चुनौतियां साफ़ सुनाई दे रही थी.

मैं और मम्मी कई सवाल  पूछते रहे पर कोई  सीधा सरल जवाब नहीं मिला और सारा मामला किसी  मोटे भारी परदे के पीछे छिपा सा लगने लगा. राधा घर से भाग कर, छुप कर शादी कर रही है, कोर्ट मैरिज कर रही है। ... पर, लेकिन, किन्तु और साथ में परन्तु की पूंछ। …

 इसके बाद घटनाचक्र बहुत तेज़ी से चलता गया, दिन बीते और आखिर छब्बीस तारीख वाला हफ्ता भी आ गया. और जैसा राधा ने कहा था, चौबीस तारीख को हम  इंतज़ार करते रहे पर वो नहीं आई और उसके बाद भी नहीं। राधा के बारे में कोई खबर या कोई बात भी सुनने  को नहीं मिली सिवाय उस खोजबीन अभियान के जो छब्बीस तारीख के बाद उसके घरवालों ने शुरू किया। जिन घरों में वो काम करती थी, उन सबके यहाँ फोन करके पूछा गया. जानते सभी थे कि वो कहाँ और किसके साथ और क्यों गई होगी पर मानने को कोई तैयार ना था.

राधा गई और उसकी शादी हुई या नहीं अगर हुई तो आगे क्या हुआ, ससुराल कैसा है, पति कैसा है और सबसे बड़ी बात राधा खुद कहाँ और कैसी है इस बात कि कोई खबर अगले तीन चार महीनों तक किसी को नहीं मिली।  मम्मी अक्सर याद करती कि राधा का ना जाने क्या हुआ.

आखिरकार  एक दिन फोन आया, राधा ने  महज़ दो मिनट बात की और कहा कि वो जल्दी ही  मिलने आएगी। पर वो जल्दी वाला वक़्त उसके बाद भी एक महीने तक नहीं आया.

दीवाली से  कुछ पहले राधा का फिर से फोन आया, इस बार उसने वादा किया कि वो ज़रूर मिलने आएगी।  और सचमुच वो आई, दीवाली के अगले दिन और अकेले नहीं अपने पति के साथ आई. लाल रंग का राजस्थानी बेस पहने हुए, हल्का मेकअप, हाथों में लाल सुनहरी रंग वाली चूड़ियाँ और तो और राधा के चेहरे  की रंगत भी कुछ निखरी हुई सी लगी.  मम्मी ने हर तरह से उन दोनों की  मेहमान नवाजी की. राधा ने शर्माते हुए मुझसे रसोई में आकर पूछा कि "दीदी, लक्ष्मण  को देखा? कैसा लगा ?" 

राधा के पूछने से पहले ही मैंने लक्ष्मण को गेट से अंदर आते देखा था, दुबला पतला, गहरे सांवले रंग का आदमी  जो शायद अट्ठाइस या उन्नतीस का होगा या शायद इस से एकाध वर्ष आगे पीछे। दोनों जोड़े में अच्छे लग रहे थे.  एक नज़र देखने से सबकुछ भरा पूरा और सामान्य से कुछ ज्यादा ही अच्छा जान पड़  रहा था.



 और फिर  राधा से बतियाते हुए इस अजीब लव स्टोरी के रंग बिरंगे  पहलू सामने  आये. 

विश्वास  करना मुश्किल था, लेकिन ऐसा सम्भव नहीं ये भी नहीं कहा जा सकता था. राधा ने बताया कि उसकी शादी के बाद उसकी माँ ने पुलिस थाने  में शिकायत दर्ज करवाई कि राधा घर से गहने चुरा कर ले गई है, लक्ष्मण  और उसके घर वाले राधा को जबर्दस्ती ले गए हैं, वगेरह।. उसके पति को धमकियां दी गई कि वो राधा को वापिस भेज दे वर्ना बुरे नतीजे हो सकते हैं. कई हफ़्तों तक ये मामला चला, थाने  के कई चक्कर काटने और कागज़ी खानापूरी के बाद  कुछ ले देकर राधा के ससुराल वालों ने मामला रफा दफा करवाया। 

"लेकिन तेरी माँ ने पुलिस में चोरी की  रिपोर्ट क्यों की?"  मैंने पूछा।

"हमारे गाँव और जाति  में रिवाज है कि शादी के वक़्त लड़के वाले लड़की वालों को रुपये  देते है।  कई बार लाख दो लाख तक मिल जाता है. लेकिन मैंने अपनी मर्ज़ी से शादी की, इसलिए घर वालों को कुछ नहीं मिला।"

इस तरह का रिवाज कुछ आदिवासी इलाकों में है ये तो मैं जानती थी पर राधा के गाँव में भी ऐसा कुछ है ये पहली बार पता चला. खैर, कहानी अभी और आगे थी. 

"मेरी बहन शोभा ने भी मेरे घर से जाने के तीन चार दिन बाद भाग कर शादी कर ली. पर उसकी शादी गाँव के ही लड़के से हुई और उन्होंने मेरी माँ को एक लाख रुपये  दिए है.  मेरा रिश्ता जिस बूढ़े से तय किया था वो दो लाख देने वाला था पर मैं पहले ही घर से भाग गई." इतना सब बताते हुए राधा के चेहरे पर एक गर्व की  चमक और आवाज़ में जीत की खनक थी. 

"पर अब मैं खुश हूँ, ससुराल बहुत अच्छा है." मुस्कुराते हुए उसने अपनी कहानी पूरी की. 

ज़ाहिर है ये सुनकर माँ को तसल्ली हुई. पर अभी कुछ परतें और बाकी थी.

लेकिन जाने से पहले राधा ने मम्मी से अपने आधे महीने की  तनख्वाह के पैसे मांगे, ये कहकर कि उसे रुपयों की  बड़ी ज़रूरत है.  सुनकर थोडा अजीब तो लगा कि जब उसका पति अच्छा कमाता है तब उसे एक छोटी सी रकम की  क्या ज़रूरत, खैर उस समय रुपये  दे दिए गए. 

उस दिन मम्मी पूरे वक़्त राधा के बारे में ही बोलती रही। … "बढई  का काम है, कह रही थी कि महीने के  नौ दस हज़ार कमा लेता है." 

"अगर सच में इतना  कमाता है  तो इस तरह चार सौ रुपये के लिए नहीं कहती।" मेरी आवाज़ तीखी और संदेह से भरी थी. 

अगले दिन राधा फिर से आई, बिना फोन किये, अचानक ही दोपहर के तीन बजे. सीधे मम्मी के पास गई। . 

"मेरा एक काम कर दो, मुझे तुरंत दो हज़ार रुपयों की  सख्त ज़रूरत है, मेरे ससुराल वालों के गाँव जाना है. मुझे किसी भी हालत में अभी पैसे चाहिए।" 

कुछ देर तक मैंने उसे टालने की  कोशिश की लेकिन मम्मी को यकीन था कि उसे सचमुच किसी बहुत बड़ी और गम्भीर वजह से रुपयों की ज़रूरत है, इसलिए दे देने चाहिए।  मैंने बात घुमाने कि गरज से पूछा कि जब तेरा पति इतना कमा रहा है तो फिर उधार  लेने की  क्या ज़रूरत पड़ी वो भी  त्यौहार के समय?? 

जवाब मिला कि आजकल काम ज़रा मंदा चल रहा है, जैसे ही नया काम मिलेगा वो तुरंत रूपये  लौटा देगी या फिर " आप अपने घर में लकड़ी का जो  काम अधूरा पड़ा है वो करवा लेना उस से, हिसाब पूरा हो जाएगा।"  

राधा का ये हिसाब मेरी समझ में नहीं आया, लेकिन मम्मी का चेहरा देख कर आखिर उसे पांच सौ रुपये देने पर सहमति बनी. वो भी इस वादे पर कि वो ये रुपये  और उसके पहले के उधार लिए हुए एक हज़ार रुपये जो उसने शादी से काफी पहले लिए थे, सब एक साथ चुका  देगी , इस महीने के आखिर तक. 

राधा के जाने के बाद कहीं ना कहीं इतना तो समझ आ ही गया कि वो "खुद का काम, दुकान और नौकर, अमावस को नौकरों की  मजदूरी का हिसाब, महीने के नौ हज़ार की  कमाई" सब केवल बातें थी, कथाएं थी.  क्योंकि इस बार राधा खुद ही बता गई थी कि लक्ष्मण किसी सेठ  के यहाँ काम करता है, जिसके पास  इस बार कोई बड़ा काम हाथ में ना होने की वजह से, उसके ज्यादातर मजदूर खाली बैठे हैं. और यही वजह थी कि त्यौहार के दिन राधा माताजी को मिलने नहीं केवल अपने बकाया पैसे लेने आई थी. इस बात का अहसास होने  पर कि राधा अपने पुराने लगाव के  कारण नहीं सिर्फ रुपयों कि ज़रूरत के चलते मिलने आई थी, माताजी का मूड थोडा उखड़ा सा रहा; पर उन्हें अभी भी विश्वास  है कि जैसे ही स्थितियां सामान्य होंगी,  राधा उनसे मिलने  वापिस आएगी और  उधार लिए रुपये भी दे जायेगी।


और अब एक बार फिर से राधा की  कोई खबर नहीं है. मुझे यकीन है कि वे रुपये अब डूबत खाते में जा चुके हैं.   हमें अभी तक नई बाई भी नहीं  मिली है, तलाश ज़ारी है.  


Image Courtesy --- Google


First Part of the Story can be read Here

 Second Part of the Story can be read Here

Tuesday 5 November 2013

Hello Everyone




This Photo was taken last year at Udaipur OTC. I stayed there for around two months and this plant maintained its "Single Status" . I think it is Waving "Leaf Hand" to the visitors and saying "hello".

Friday 1 November 2013

The Great Indian Festival aka Diwali

साल का सबसे बड़ा त्यौहार दीवाली,  पूरे पांच दिन का  त्यौहार, धनतेरस से लेकर भाई दूज तक चलने वाला "The Great Indian Festival that can beat A Circus Show as well."  अब आप पूछिए कि इसमें सर्कस बीच में कैसे आ गया और मेरी इतनी मजाल कि मैं दीवाली जैसे महत्वपूर्ण त्यौहार को  सर्कस कह रही हूँ।  हद ही है, घोर नास्तिक लोग हैं भाई. खैर, ये  ख्याल यूँही अचानक बैठे बिठाये नहीं आया, कोई  रूहानी इल्हाम नहीं हुआ और ना कोई दार्शनिकता से भरी थ्योरी दिमाग में उभरी है.  दरअसल, ये ख्याल उस समय दिमाग में आया जब  मेरे घर में भी  हाँ-ना करते आखिर दीवाली का सफाई अभियान शुरू हो ही गया और फिर उस साफ़ सफाई के महाभियान ने इतना थका दिया कि एक के बाद एक घर में सबको बुखार हो गया.  और तब ये महा मौलिक विचार मेरे दिमाग की  उपजाऊ ज़मीन में उगा.


ख्याल ये है कि दीवाली से पहले भारतवर्ष का हर घर, गृहिणी, गृहस्वामी, बच्चे और अन्य सभी सदस्य घर के कोने कोने को झाड़ पोंछ, धो धा  के चमकाने में जुट जाते हैं. रसोई के बर्तन, डिब्बे, शो केस में सजी क्राकरी और घर की हर चीज़ को घिस मांज  के चमका दिया जाता है,  कहीं पेंट हो रहा है, कहीं घर का रेंनोवशन तो कहीं नया फर्नीचर और दूसरी चीज़ें लाइ जा रही  हैं.  इन शॉर्ट, इस पूरे हंगामे और फाँ  फूं को देख कर ऐसा लगता है कि  ये एक राष्ट्रीय सफाई अभियान है.  देवी लक्ष्मी  और उनके सम्मानीय  वाहन महाशय  इस धरती पर हमारे घरों के इंस्पेक्शन, मुआइने के लिए आ रहे हैं. यानि वे लोग निश्चित रूप से "निर्मल एवं स्वच्छ भारत ( चमकता- दमकता, well decorated, glowing, sparkling) अभियान के प्रमुख हैं  और उनका काम ये देखना है कि लोग अपने घर, दुकान और दूसरी इमारतों की देखभाल ठीक से कर रहे हैं या नहीं। 

मुझे लगता है लक्ष्मी जी और  उनके वाहन जी (माफ़ कीजिये, वाहन जी को उनके नाम से बुलाने का अपराध मैं नहीं कर सकती),  "राष्ट्रीय कबाड़/अटाला  हटाओ    परियोजना" के भी निदेशक हैं. क्योंकि आमतौर पर दीवाली के मौके पर ही लोगों को अपने घर से पुराना कबाड़ और रद्दी निकालने की याद आती है. गलियों में कबाड़ी वाले दिन में दस बार आवाज़ लगाते हैं और कबाड़ी की दुकान पर रद्दी सामान की  प्रदर्शनी लग जाती है. 

और इसी बात पे मेरे मंदबुद्धि दिमाग में ये सवाल भी आ गया कि भगवन श्रीराम के अयोध्या आने और घरों की  युद्ध स्तर पर साफ़ सफाई का आपस में क्या सम्बन्ध है ?  अब ये तो समझ आया कि राजा  साहब पूरे चौदह साल का वनवास काट कर राजधानी वापिस पधार रहे हैं, इस ख़ुशी में शहर को चाँदनी सा चमका दिया गया. लेकिन इसका एक अर्थ ये भी बनता है कि श्रीमान sabstitute  राजा भरत  ने  चौदह साल तक शहर के हाल चाल सुधारने पर कोई ध्यान नहीं दिया  और यथा राजा तथा प्रजा की कहावत को चरितार्थ करते हुए जनता ने भी चौदह साल तक अपने घरों और बाज़ारों की  साफ़ सफाई नहीं की. इसलिए जैसे ही राम जी के आने का टाइम हुआ तो अचानक आनन् फानन  में ओफिसिअल आर्डर ज़ारी किये गए कि भाई, जागो और अपने शहर का नाक नक्शा, हुलिया ख़ास तौर पर अपने घरों का, सब ठीक कर लो.  क्योंकि शहर का नक्शा तो चौदह साल से  बिगड़ा पड़ा था तो इतनी जल्दी उसके सुधरने की  गुंजाइश नहीं हो सकती थी.  


पर फिर मैंने सोचा कि ये भी तो हो सकता है कि इस सफाई अभियान वाली बात को बाद के समय में दीवाली और भगवान्  राम के अयोध्या आगमन से जोड़ दिया गया हो.  क्योंकि इसी बहाने साल में एक बार ही सही लोगों को ( भदेस हिन्दुस्तानियों को ) साफ़ सफाई और cleanliness के लिए प्रेरित किया जा सकता था. ये भी सम्भव है कि बाकायदा मंदिर मठ  के महंतों ने इसके लिए आर्डर, आज्ञा वगेरह भी ज़ारी किये हो; और फिर इस तरह ये सिलसिला चल निकला हो.  

अब ये सवाल सुलझाने के बाद दूसरा सवाल दिमाग में आ गया. सवाल ये कि दीवाली धनतेरस पर खरीददारी का सिस्टम कैसे बन गया, इसको शगुन कैसे और क्यों मान लिया गया? भारी भरकम प्रश्न था, विशेष रूप से आर्थिक मंदी,  economic slowdown, recession वगैरह के ज़माने में इस सवाल कि प्रासंगिकता भी बढ़ गई. आफ्टर आल, हर बार महंगाई और बाज़ार सुस्त है का रोना रोते हुए भी सैकड़ों करोडो रुपये का कारोबार दीवाली पर हर साल हो ही जाता है. सोना चांदी  कितने भी महंगे हो फिर भी दीवाली पे खूब बिक जाते हैं.  तो,  आखिर इसका भी जवाब मिल गया. 

मेरा विचार है कि देवी लक्ष्मी और भगवान् गणेश, दोनों  संयुक्त रूप से  "राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था  सार सम्भाल परियोजना" के प्रमुख हैं. और उन्होंने अर्थव्यवस्था की  सेहत और व्यापारियों के नफे नुक्सान, लोगों की बचत को खर्च में बदलने  जैसे विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर खरीददारी के शगुन का आईडिया व्यापारियों को दिया हो. और फिर उस ज़माने (पुराने ज़माने), वैसे पता नहीं कितना पुराना,  के व्यापारिक संगठनों ने मंदिरों से सलाह मशवरा करके, उनकी सहमति और आशीर्वाद से इस रिवाज को शुरू करवाया हो. और इस तरह देवी लक्ष्मी और गणेश जी ने साल का सबसे बड़ा त्यौहार अपने लिए सिक्योर कर लिया हो. 

और अंत में मेरे उलझे दिमाग में ये विचार आया कि साफ़ सफाई से लेकर खरीददारी, मिठाइयां, पटाखे इन सबका एक बड़ा और सर्वप्रमुख उद्देश्य "राष्ट्रीय उत्साह जगाओ, उत्सव मनाओ परियोजना" से जुड़ा है, जिसके प्रमुख है भगवान् विष्णु, जिन्होंने अपने समस्त परिवार और एक अवतार चरित्र को अपनी इस ड्रीम प्रोजेक्ट की सौ फीसद सफलता और टारगेट पूरे करने के काम पर बखूबी लगा दिया और किसी को ये अंदर की  बात पता भी नहीं चली.  

सचमुच हम  भारतीय  हर तरह के मैनेजमेंट (बिज़नेस , फाइनेंसियल, मार्केटिंग, कस्टमर केयर, अलाना फलां ) सब के एक्सपर्ट हैं और दीवाली का त्यौहार इसका सबसे जीवंत उदाहरण है.


P. S . कृपया मेरी इन बातों को गम्भीरता से ना लें, ये तो एक थके हुए दिमाग की  काल्पनिक उड़ान का नतीजा हैं.