Wednesday 7 November 2012

ज़िन्दगी आधी हकीकत आधा फ़साना : भाग 2


उसी चौराहे पर, उन भिखारियों की हंसी में। फिर से जैसे वो  बेचैनी का माहौल लौट आया जब वीरेन अपने से ही लड़ता, अपने ही रचे संसार में खुद को तलाशता और आखिर में आईने में परछाइयां देखकर रो पड़ता। एक बवंडर मचा था उसके भीतर जो बाहर किसी को न दीखता था ना सुनाई देता था .. किसी को उसकी आहट  तक ना थी .. पर वीरेन हर रोज़ उस तूफ़ान से संघर्ष कर रहा था। हर रोज़ पूछता था सवाल कि  "तुम कौन हो?  क्यों चले आये हो ? वापिस क्यों नहीं चले जाते ?  क्यों मुझे सता रहे हो ? मैं तुमसे लड़ना नहीं चाहता .. चले जाओ .. "  एक रात यूँही हमेशा की तरह नींद गायब थी,  वो उठा और चुपचाप घर से बाहर निकल गया, किसी को पता  नहीं पड़ा .. चलता गया सड़क  पर .. ऐसा लगता था जैसे वो बंधनों में बंधा है और उसे मुक्ति की तलाश है .. छुटकारे की ..


" इस तरह टुकड़ों टुकड़ों में हारने से, हर रोज़ थोडा थोडा रोने से एक बार हमेशा के लिए हार जाना ... एक बार ही सही हमेशा के लिए जीत जाना ... हाथों की लकीरें या किसी किस्मत नाम की परछाई या निरुद्देश्य से जीवन की परिस्थितियों से हारना ... ?"

"नहीं ये नहीं होगा .. मैं ये नहीं होने दूंगा।। अपनी ज़िन्दगी पर, इस आज पर, इस लम्हे पर तो मेरा ही अधिकार है ... " वीरेन जोर से चीखा , उसकी आवाज़ सुनसान रात में गूंजती रही .. घरों में सोये लोगों को खबर तक न हुई, चौकीदार ने इसे किसी पागल की हरकत समझ कर अनसुना कर दिया।  

वीरेन फिर चीखा .. " मैं इस ज़िन्दगी को वहाँ ले जाऊँगा जहां सारी  ख्वाहिशें ख़त्म हो जायेंगी .. जहां कुछ बाकी नहीं रहेगा ... जहां एक बार फिर मैं अपनी सारी  कमजोरियों  और  नाकामियों से जीत जाऊँग .. मैं दिखा दूंगा इस दुनिया को, ऋचा को ... " चीखता गया वीरेन और भी जाने क्या क्या। तभी लगा जैसे सामने कोई खड़ा है, एक धुंधली सी आकृति, उस बदहवासी की हालत में भी उसके कपड़ों से  वीरेन ने अंदाज़ा लगाया कि  कोई लड़की है पर चेहरा साफ़ नहीं दिख रहा, अँधेरे में ही खड़ी है। फिर एक हंसने की आवाज़ आई ... "क्या हुआ है तुमको? क्या चाहिए ? घर लौट जाओ , सो जाओ।  " 

"तुम कौन हो? अपना काम करो". 
"मैं ..!!! " फिर से हंसने की आवाज़ आई .... "मैं वही हूँ जिस से तुम भागते फिरते हो, तुम्हारी परछाई, तुम्हारी सांसें, तुम्हारा वजूद, मैं तुम्हारे ही हाथों की लकीरों में रहती हूँ। "  इतना कहते उसना अपना हाथ बढाया वीरेन की तरफ जैसे आगे आकर उसका हाथ पकड़ लेगी। पर वीरेन थोडा पीछे हटा .. "दूर हटो, मुझसे दूर रहो ... पास मत आना" .. डर  वीरेन के चेहरे पर था और उसके पैर कांपने लगे। पर फिर  उसने हिम्मत जुटाई, "तुम सोचती हो कि  मैं तुमसे हार जाऊँगा,  तुम मुझे बाँध कर रखोगी और मैं देखता रहूँगा .. ऐसा नहीं होगा ... कभी भी नहीं होगा .. तुम देखना .. अब तुम देखना .."  और वीरेन ऐसे ही बोलता गया .. अँधेरे में, पीछे हटता रहा, हंसने की आवाज़ सुनाई देती रही फिर धीरे धीरे गायब हो गई।            

और फिर सूरज निकला, सुबह हुई .. वीरेन कहीं रास्ते में किसी पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठा है . अब उसका मन शांत है पर बेहद थका हुआ है .. पर जैसे उसने कोई फैसला ले ही लिया है।  घर लौटा तो देखा,  पापा और मम्मी और उसका छोटा भाई  तीनों बाहर बरामदे में ही खड़े हैं, "क्या मेरा ही इंतज़ार कर रहे हैं? "  पर उसने कुछ कहा नहीं, नज़र बचा के निकल जाने का सोचा पर कुछ सवाल आये, कहाँ थे, कब गए ,  माँ का उलाहना, भाई का खामोश गुस्सा ... पर वीरेन निकल ही गया।  आज सीधा ही आश्रम चला गया।  स्वामी अमृतानंद से पूछने को  कोई  सवाल नहीं था पर कहने को बहुत कुछ था। 

बावन साल के उस आदमी ने जिसके चेहरे पर अनुभव और परख की लकीरें थीं, जिसने वीरेन से भी छोटी उम्र में गेरुए रंग को अपना लिया था  ... सब सुना, समझा और  कुछ देर की चुप्पी के बाद समझाने के तरीके से कुछ बातें कहीं। पर थोड़ी देर में ही जब लगा कि  वीरेन नहीं सुन रहा, नहीं मान रहा तब स्वामी अमृतानंद को शायद गुस्सा ही आ गया .. " क्या सोचते हो, संन्यास लेना कोई मज़ाक है,  कोई खेल है, कोई नया शौक है या बाज़ार में बिकने वाली कोई चीज़ कि  तुम जाओ और पैसे देकर खरीद लाओ। यहाँ खुद को, अपनी हर ख्वाहिश को कुर्बान करना होगा, घर, परिवार, दुनिया के ये सारे नज़ारे, ये  तुम्हारी लाइफस्टाइल सब छोड़ देना होगा।  ये जो आज इतने महंगे कपडे पहने हो, कार में घूमते  हो, दोस्तों के साथ पार्टी  करते हो,ये सब छोड़ देना होगा .... कर सकोगे क्या ... सारी ज़िन्दगी ये सादे सफ़ेद और गेरुए कपडे पहनने होंगे, ज़बान के स्वाद और पसंद नापसंद सब भूलना होगा .. शादी -ब्याह तो भूल ही जाना .. किसी लड़की का ख्याल भी मन में ना लाना .. कर सकोगे?"  सवाल में चुनौती थी, व्यंग्य था, उपेक्षा थी और साथ ही सामने वाले को तौलने की खनक भी थी।                      

"मैं कर लूँगा .. मैं ये सब जानता हूँ .. और मैं आप को और खुद को निराश नहीं करूँगा ." 

"हमारा  आश्रम  और इसकी छत, दुनिया से भागने वाले का ठौर ठिकाना नहीं है, यहाँ वही रह सकेगा जो खुद को पूरी तरह मिटा सके और गुरु की आज्ञा  का पालन हर हाल में कर सके।" 

और उस दिन ये बात यहीं रह गई, वीरेन का फैसला तो नहीं बदला पर उस वक़्त उसने ज्यादा बहस भी नहीं की।  फिर कुछ महीने और बीते।  वीरेन अब भी आश्रम आता  था .. और अक्सर अपनी यही ख्वाहिश दोहराता था .. घर वाले भी अब जान ही गए, माँ ने स्वामी अमृतानंद को साफ़ शब्दों  से कह  दिया था कि  वो अपने बेटे को नहीं जाने देंगी।  पर अब वीरेन ने आश्रम  को ही अपना दूसरा घर बना लिया था .. जो और जैसा काम स्वामी जी  बताते वीरेन करता .. भूल गया कि  वो किसी प्रसिध्द बिज़नेस  कॉलेज का डिग्री होल्डर है ,  उसे कैंपस इंटरव्यू में एक अच्छा खासा पैकेज मिला था। लेकिन वो सब छोड़कर वो यहाँ अपने घर किसी और मकसद आया था, अपने फॅमिली बिज़नस को expand करने के लिए।  अब उसे कुछ और ही करना था, कहीं और, किसी अनजाने लेकिन सबसे अलहदा रास्ते पर चलते जाना था .. ऐसे रास्ते पर जहां उसका अस्तित्व भी मिट जाए पर फिर भी वो सबसे उंचा उठ जाये ... 

आखिर वो वक्त भी आया, वीरेन को ना माँ का रोना और पुकारना रोक पाया और ना पिता का पथराया हुआ चेहरा ...

जिस आश्रम में वीरेन और माँ जाते थे वो असल में ऐसे कई आश्रमों की श्रृंखला का एक हिस्सा था  .. और पूरे देश में उनके ऐसे कई आश्रम थे .. अनेक शहरों में, शायद लगभग हर शहर में।  और इन सबका एक  केन्द्रीय स्थान था, जो महाराष्ट्र में कहीं था।   जिसे इस सम्प्रदाय का तीर्थ कहा जाता था। यहीं से बाकी सब आश्रमों को superwise  किया जाता था, और यहीं उन लड़के लड़कियों का प्रशिक्षण भी होता था जो अपना घर और इस तथा कथित नश्वर संसार को त्याग कर आध्यात्मिकता की राह पर चल पड़ते थे। वीरेन का नया पता ठिकाना भी यही जगह थी। 

यहाँ आने के बाद वीरेन को समझ आया कि  जितना वो इस आश्रम को जानता था ... ये उस से कहीं ज्यादा जटिल और विस्तृत संगठन है।  और  महज घर छोड़कर  यहाँ चले आना ही संन्यास नहीं ... असल सफ़र तो अब शुरू हुआ .. कई तरह की औपचारिकताएं हुई,  जिनमे सम्प्रदाय के प्रमुख से मिलने और उसे एक नया नाम देने की रस्म सबसे महत्वपूर्ण थी।  ये नया नाम वीरेन की नई  ज़िन्दगी, एक नए जन्म और उसकी आत्मा के नए रूप में ढलने का सूचक है .. ऐसा  श्री महाराज स्वरूपानंद ने फ़रमाया .. वीरेन को भी यही लगा .. और अब वो वीरेन नहीं था .. अब उसका नाम था  "राम" .. वीरेन को ये नया नाम पसंद भी आया।  और हाँ अब उसके बाल भी काट दिए गए। अब उसे सिर्फ सफ़ेद कपडे ही पहनने थे।  पर अभी आगे और रास्ता बाकी था .. बाकायदा साधु  बनने का प्रशिक्षण शुरू हुआ .. जिसमे   धर्मग्रंथों का, आध्यात्म का और गुरुवाणी  की गहरी जानकारी दी गई। आश्रम के सन्यासियों की क्या जिम्मेदारियां है, क्या उद्देश्य होने चाहिए, किस तरह उनको मोह माया के जाल में फंसे बेचारे संसारी मनुष्यों को "सच्चे सुख",  "कल्याण" और  मोक्ष के मार्ग  पर ले जाना ये सब आश्रम के सन्यासियों की ही ज़िम्मेदारी है। दुनियादारी के फेर में फंसे इंसानों को ज्ञान की  रौशनी देना, उनको उस रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करना ... ये सब जिम्मेदारियां निभाने के लिए  और उसके साथ और भी कई लड़के लड़कियों को जो उसी की तरह अपना घर और दुनिया के सारे आकर्षण छोड़ आये थे .. उन सबको प्रशिक्षित किया गया। 

और फिर  एक दिन आया जब सब नए recruits को अलग अलग शहरों में भेज दिया गया .. किसी ना किसी आश्रम में .. किसी सीनियर "स्वामी" या महात्मा के निगरानी में  सीखने-समझने और नए माहौल में ढलने  के लिए ... वीरेन को भी फिलहाल महाराष्ट्र के ही किसी छोटे से शहर में भेज दिया गया। हाँ इस बीच कभी कभी घर याद आता  था ..अब कभी कभी तो क्या होता है , घर तो सबको याद आता ही है .. घर के लोगों से कितना भी नाराज़ हो,  उनकी याद तो आती ही है। पर अब जो एक बार इस रास्ते पर पैर रख दिया तो पीछे लौटना संभव नहीं .. कुछ वक़्त तक माँ और पापा वीरेन की खोज खबर  की कोशिश करते रहे पर आखिर उन्हें स्वामी अमृतानंद ने समझाया .. "अब वीरेन तुम्हारा बेटा  नहीं है  अब वो हमारा हो गया है , आश्रम का, इस पंथ का, उसका जन्म  एक बड़े उद्देश्य के लिए हुआ है .. क्यों उसके रास्ते में रुकावटें खड़ी  करते हो .."

लेकिन वीरेन का  मन अभी भी भटकता है .. अक्सर सोचता है कि  दुनिया को रौशनी  दिखानी है, उनको राह दिखानी है पर खुद उसे ही अपनी राह का अता  पता नहीं . वो चला आया है यहाँ पर क्या सच में वो बन सकेगा जो उस से  उम्मीदें है  ?? नहीं जानता ... नहीं समझता .. पर इतना तो जानता ही है कि  अब वो कोई मामूली इंसान नहीं रहा.. अब वो  "राम"  है .. "वीरेन"  अब उस से अलग हो गया है , ऐसा लगता है कि  जैसे उसने अपने पुराने शरीर को छोड़ कर  जीते जी ही नया शरीर, नया रूप धारण कर लिया है , बहुत हल्का और शांत चित्त महसूस करता है अब "राम" ... 

आखिर उसे एक साल के बाद  गुजरात के किसी शहर में स्वतंत्र रूप से भेज दिया गया, आश्रम संभालने के लिए .. अब यहाँ  उसके अलावा एक वरिष्ठ सन्यासिनी और भी है जिसे सब बहन जी कहते हैं .. सब अच्छा ही लग रहा था, लोग आकर पैर छूते हैं, आशीर्वाद लेते हैं,  रोज़ सुबह शाम कुछ प्रवचन भी देने होते हैं दोनों समय की आरती और पूजा के बाद, आश्रम की सार संभाल और हाँ, नए आये हुए संत को जो अभी इतनी छोटी उम्र का है .. लोग अपने घर भी बुलाते ये कह कर कि  स्वामीजी अपने चरण तो फेर जाइए हमारे घर से .. कुल मिलाकर इस नए माहौल, नई  जिम्मेदारियों और नई भूमिका ने   वीरेन को  सम्मोहित कर दिया  है।  वीरेन को देखकर लोग हैरान होते, जब उसके गुज़रे जीवन की थोड़ी बहुत जानकारी पाते (उसकी शिक्षा, नौकरी, पारिवारिक पृष्ठभूमि ) तो  कहते ... " इतना पढ़ा लिखा, ऐसा सुन्दर सुदर्शन लड़का और  इतनी छोटी उम्र में वैराग्य .." 

वीरेन अपना लैपटॉप साथ लाया था, जिसमे अब भजन -- कीर्तन, प्रवचन के विडियो  सेव किये हैं। वीरेन का प्रवचन सचमुच बहुत गंभीर, गहन और प्रभावपूर्ण होता, साफ़ ज़ाहिर होता था कि  जो कुछ उसे सिखाया पढाया.. उसने , उस से कहीं ज्यादा जान लिया है।  आश्रम आने वालों को वीरेन सचमुच  highteck  सन्यासी लगता था।  औरतें, लडकियां उसे देखतीं और विश्वास ना कर पाती कि  इतना खूबसूरत नौजवान सफ़ेद कपड़ों में सन्यासी बन कर आश्रम आया है।  वीरेन, लोगों के इस असमंजस और आश्चर्य को देखता समझता और कहीं ना कहीं दिल में खुश भी  होता, लगता जैसे कुछ achieve  कर लिया .. आखिरकार कुछ ऐसा जो बहुत ऊँचे और गैर मामूली दर्जे का है, असाधारण है !!!! ...कोई सोच भी ना सके जो वो मैंने कर दिखाया .. (हाँ सही समझे, थोडा अहंकार आ ही जाता है इंसान में इतना सब झेल जाने के बाद फिर वीरेन को ही दोष क्यों दें ). 

शुरू के कुछ खुशनुमा  हफ़्तों के गुजरने के साथ साथ अब वीरेन आश्रम के कुछ प्रमुख लोगों को भी जानने लगा, प्रमुख यानी ऐसे लोग लगभग हर जगह मिल जायेंगे जो हर तरह की गतिविधि में, प्रबंधन में आगे रहते हैं और  धार्मिक आश्रम जैसी जगहों पर तो इनका होना बेहद ज़रूरी है, आखिर यही लोग सबसे ज्यादा चंदा देते हैं, हर बार जब कोई बड़ा खर्च हो या ऐसा कोई मौका हो तो उसमे उनका अच्छा खासा आर्थिक योगदान होता है।  आश्रम के बड़े स्वामी और महाराज भी विशेष निमंत्रण पर  कभी कभी  इन्ही लोगों के घर आकर रुकते हैं और इनकी गाड़ियाँ इस्तेमाल करते हैं। आश्रम के दिन प्रतिदिन के प्रबंधन और नियंत्रण में इन लोगों की बड़ी - छोटी  सारी  भूमिकाएं रहती ही हैं, कह लीजिये कि  इनके बिना आश्रम का कोई काम हो नहीं सकता (ऐसा ये लोग मान के चलते हैं, यानी कि  आश्रम ना हुआ इनकी व्यक्तिगत सम्पति हो गई)  और यही एक बड़ी वजह भी है कि  आश्रम के सन्यासियों को भी थोडा बहुत इन लोगों के अनुसार चलना ही होता है, इनके दखल को सहन भी करना होता है। वीरेन को शुरू में तो इस सब का इतना ज्यादा अहसास नहीं हुआ पर  कुछ त्योहारों के सत्संग वाले दिनों में ये बात कुछ हद तक वीरेन  को समझ  आई, जब उसने  देखा कि  आश्रम में होने वाले लगभग हर काम पर एक ख़ास व्यक्ति का नियन्त्रण है .. रमण भाई .. बाकी के सब लोग हर बात में उनसे सलाह ज़रूर ले रहे हैं। 

आश्रम में एक सेवा समिति है जो साफ़ सफाई से लेकर दोनों  समय की आरती -पूजा और प्रसाद बांटने तक के सारे काम संभालती है। यहाँ तक कि  कौन सदस्य क्या काम करेगा और कौनसा नहीं करेगा, ये भी  है और तय करते  हैं रमण भाई।  आरती के समय समिति के सदस्य ही आरती का थाल लेकर खड़े हो सकते हैं, बाकी लोग केवल थाल  को हाथ लगा हाथ जोड़ कर ही संतुष्ट हो लेते हैं। प्रसाद बांटने के वक़्त रसोई और भण्डार पर जैसे सेवा समिति के सदस्यों का वर्चस्व हो जाता है ...कोई वहाँ आ नहीं सकता, आएगा तो उससे वजह  पूछी जायेगी और फिर डांट  के भगा दिया जाएगा।  एक दो बार वीरेन ने ऐसा देखा तो रोकने और समझाने की कोशिश की लेकिन कुछ हुआ  नहीं। रमण भाई की भुवन मोहिनी हंसी के सामने  किसी की नहीं चल सकती। वीरेन को महसूस हो रहा था कि  रमण भाई का दखल कुछ ज्यादा है .. पर उनका प्रभाव कितना है इसका अंदाज़ा उसे तब हुआ जब उसने सेवा समिति में अपनी मर्ज़ी से कुछ लोगों को शामिल करने की कोशिश की।  पर जल्दी ही उन नए लोगों को और खुद वीरेन को समझ आ गया कि  वे लोग  सिवाय डेकोरेशन पीस के कुछ नहीं।  कुछ लोगों ने वीरेन से शिकायत भी की और  वीरेन ने कुछ कह सुन कर सामंजस्य बिठाना भी चाहा ...

"अरे राम दादा आप क्यों  परेशान  होते हैं, हम लोग सब संभाल रहे हैं, नए लोगों की ज़रूरत ही नहीं। हम सब कर लेंगे। आप अपना काम  संभालिये, इतने वक़्त से मैं, संजीव, रोहन और मनीष और हमारे बाकी लोग ये सब काम कर रहे हैं .. आप क्यों उलझते हैं इसमें " ये रमण भाई की स्नेह भरी वाणी थी।  वीरेन बहुत कुछ देख रहा था, प्रसाद बनता है और बहुत बनता है, कोई कमी नहीं है भगवान् के दरवाजे पर .. पर सही ढंग से तो केवल आगे की कतार में  लोगों को ही मिलता है, जो पीछे बैठे हैं  उनको तो सिर्फ खानापूर्ति भर का मिलता है।  और जिनको रमण भाई नया कह रहे हैं असल में  वे कोई कल के आये हुए श्रद्धालु नहीं, बरसों से आ रहे हैं आश्रम पर ...

पर वीरेन भी कहाँ मानने वाला  था .. उसने अगली बार गुरु पूर्णिमा के त्यौहार के समारोह के लिए अपनी एक योजना बनाई, जिसमे लंगर का मेनू, आश्रम की सजावट और यहाँ तक कि  उसने कुछ और लोगों को भी, इनमे कुछ बुजुर्ग और कुछ लड़के शामिल थे, इनको अलग अलग कामों की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी।  तैयारी के एक दो दिन ठीक ही बीते लेकिन फिर सेवा समिति के संजीव और रोहन कुछ अनमने से दिखे .. फिर रमण भाई ने नए सेवादारों के काम पर ऐतराज जताया ..गुरुपूर्णिमा का त्यौहार तो वीरेन की पसंद के हिसाब से हो गया  पर अगले ही दिन स्वामी प्रकाशानंद का जो सम्प्रदाय के प्रमुखों में से एक थे, उनका फोन आया वीरेन को, पहले हाल चाल पूछते रहे, फिर पूछा कि  सब कुछ ठीक चल रहा है ना ... कोई समस्या .. 

उनके आने का प्रोग्राम तय था दस दिन बाद का ... वे आये और तीन दिन रहे ... बहुत धूम रही, लगातार भजन कीर्तन के कार्यक्रम चलते रहे .. सुबह यहाँ शाम वहाँ, लोगों  की भीड़ लगी रही उनके दर्शन के लिए .. यहाँ फिर वीरेन ने देखा कि  "बहन जी"  "कुछ"  लोगों को तो  बहुत तसल्ली से स्वामी जी से मिलवा रही हैं,  उनका परिवार समेत परिचय भी करवा रही हैं, वहीँ बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो बस आते और यूँही माथा टेक कर चले जाते उनको जल्दी प्रसाद देकर रवाना कर दिया जाता,  परिचय आधा अधूरा सा होता और बस ... ऐसा भी नहीं था कि  वे लोग  "भेंट" कम देते हैं या आश्रम को दिया जाने वाला चंदा बहुत कम है, पर फिर भी सालों से आने के बावजूद उनका कोई ख़ास वजूद नहीं था। 

रात को सब तरह से फुर्सत मिलने के बाद स्वामी प्रकाशानंद ने वीरेन को अलग से बुलाया और कमरा बंद कर के काफी देर को समझाते रहे या कहते रहे .. और उनके कहे का सार यही था कि  जैसा लोग चाहते हैं, जैसा चल रहा है, चलने दो , इसी में उनकी ख़ुशी है , हम सन्यासी हैं, हमें आज यहाँ और कल कहीं और जाना है, क्यों इनके काम में दखल देते हो।  तुम्हे यहाँ जिस उद्देश्य से भेजा गया है बस उतने पर ही ध्यान दो।  अब वीरेन बस यही नहीं समझ पाया कि  उसे "किस उद्देश्य" के लिए भेजा गया है .. "लोगों को ज्ञान की रौशनी दिखाने के लिए ?????????? 

खैर, दिन गुजरे,  अब एक और बात वीरेन को दिखाई देने लगी ... शुरू  में तो  उसने खुद को ही लताड़ा कि  क्या वाहियात चीज़ें सोच रहा है ... पर फिर यकीन हो गया .. कई दिनों से देख रहा था वीरेन,  कुछ लडकियां और औरतें (जी हाँ जवान, मध्यम  आयु की, सभी ) अक्सर जब आश्रम आती हैं तो वजह बिना वजह उसके कमरे में भी चली आती हैं .. और कुछ नहीं तो यूँही नमस्कार करने, प्रणाम करने, पैर छूने ....  वीरेन उनके कपड़ों को देखता है और सोचता है कि  क्या और कितना  फर्क है इस छोटे शहर की औरतों में और उन बड़े मेट्रोज की क्राउड में ... फिर सोचता .. आखिर तो सब इंसान ही हैं , अन्दर से सब एक से ... पर उन लड़कियों का इस तरह बार बार आकर कमरे में बैठ जाना .. वीरेन को परेशान करने के लिए काफी होता ... और वीरेन इतना भी मूर्ख नहीं कि  नज़रों के भाव ना समझ सके .. पर उसे पता है कि  वो क्या कुछ पीछे छोड़ आया है और इन लोगों को नहं पता कि  ये सब आकर्षण और लालसाएं अब अर्थहीन हो गई हैं।

जैसे जैसे दिन गुज़र रहे थे, वीरेन रमण भाई और उनकी "जागीर" बन गए आश्रम  के रंग रूप को देखता और हैरान होता जाता कि  भगवान् के दरवाजे पर भी लोगों को आपस में छोटी छोटी बातों के लिए लड़ने  और राजनीति  करने से फुर्सत नहीं।  "ये  सेवा मेरे जिम्मे  है, सिर्फ मैं ही कर सकता हूँ, आपने क्यों हाथ लगाया ..." " सब लोग लाइन में खड़े रहिये।। ऐ अम्माजी, कहाँ लाइन से बाहर  जा रही हो .." " क्यों क्या काम है, यहाँ क्या कर रहे हो ... पीछे बैठो, इस जगह पर हम बैठते हैं .." और भी पता नहीं क्या क्या .. वीरेन ने कई बार इस सब को रोकने और समाधान की कोशिश की पर बेकार गया .. उसकी बात को सुना अनसुना कर सेवा समिति के लड़के अपनी मनमानी करते रहते ..   


 यहाँ तक अब कई बार रमण भाई वीरेन को भी झिड़क देते थे।

"वैसे राम दादा, कितना  वक़्त हो गया  आपको ये चोला धारण किये हुए .." सवाल था या व्यंग्य समझना कठिन था .

" यही एक साल हुआ होगा .. "

"बस !!!!! .. मैं तो अपने पिता के समय से आ रहा हूँ आश्रम में और तब से ही  ये  सारी व्यवस्था संभाल रहा हूँ। आज तक कितने ही संत आपके जैसे यहाँ आये और गए .. सब के साथ मेरा अच्छा सम्बन्ध रहा .." 

अब इसका अर्थ समझना  मुश्किल नहीं  था।  वीरेन समझ गया कि  रमण भाई के  साम्राज्य में हरेक को सोच समझ कर चलना होगा .. उसने "बहनजी" को बता कर कुछ समाधान करने की कोशिश की। पर वहाँ  बेहद ठंडा  जवाब मिला और उसकी वजह भी जल्दी समझ आ गई .. आश्रम की रसोइ में modular किचन लगवाने की तैयारी हो रही थी। और उसका पूरा खर्च रमण भाई और उनकी सेवा समिति के कुछ सदस्य उठा रहे थे। 

और फिर एक दिन, शाम को स्वामी प्रकाशानंद का फोन आया ... "राम, तुमको छत्तीसगढ़ भेज रहे हैं .. आज रात ही कोशिश करो रवाना होने की।" 

"पर स्वामी जी, अभी तो यहाँ आये सिर्फ आठ महीने ही हुए हैं, अभी तो यहाँ .."

"राम, सन्यासी का कोई निश्चित ठिकाना या घर नहीं होता और ना किसी जगह से इतना मोह पालो ..वैसे भी तुम यहाँ ठीक से संभाल नहीं पा रहे .."

"क्या ...???"       

       
To Be Continued.. 
     
 

  1st Part of The Story is Here

The Story, Charactors and Events are all FICTIOUS.
  



    
   

  



4 comments:

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

बेहतरीन रचना एवं अभिव्यक्ति के लिए आभार

Dr. Naveen Solanki said...

bahut sundar.....agle part ka intzaar rahega.....

#गिरती हुयी दीवार का हमदर्द हूँ यारो.
# http://drnaveenkumarsolanki.blogspot.com/
# http://naveensolanki.blogspot.com/

Bhavana Lalwani said...

Thank u naveen.. jaisa aapne fb pe kahaa ki english words k kaaran pravaah toot jata hai .. par mujhe is se likhne mein aasani hoti hai .. kai baar sahi hindi shabd nahin milta ya uska istemaal bahut formal lagta hai ya language ko heavy banaa deta hai isliye main zarurat k mutaabik english words use kar leti hun ..

thnks fr encouragement.

Anonymous said...

Nice one. One suggestion, kindly use Ram instead of Viren if u find it suitable.