Tuesday 22 November 2011

क्यों खफा हैं सब लोग?

यहाँ हर कोई खफा है, नाराज़ है... कोई खुद से खफा है, कोई दूसरों से खफा है, कोई ज़िन्दगी से खफा है,  कोई अपने हालात से ही खफा है. मतलब सबके पास अपनी अपनी वजहें हैं और उनकी तफसीलें है खफा होने की.  मैं भी खफा हूँ , खुद से और उन सब चीज़ों से जिसका अभी मैंने किस्सा बयान किया. पर मुझे लगता है कि  हम दूसरों से कम,  खुद से ज्यादा खफा हैं.  अब ये बिलकुल अचानक ही  बैठे बिठाए एक  ख्याल दिमाग में आ गया..  कहिये कि,  अचानक से ऐसा कुछ इल्हाम हुआ मुझे कि मैं दूसरों से नहीं असल में खुद से ही खफा हूँ . और मेरा ख्याल है कि ये बात कम-ज्यादा सब पर  लागू है . (मुझे याद है बचपन में मेरी सहेलियां मुझे अक्सर कहती थी और अभी भी बहुत ज्यादा वक़्त नहीं बीता होगा उनकी शिकायतों को, कि मैं बहुत जल्दी खफा हो जाती हूँ... या खफा हो जाती थी..और तब कभी वो मुझे मनाती थी और कभी मैं ..वो भी पूरे ताम झाम के साथ. chocolate ग्रीटिंग कार्ड्स और भी जाने क्या क्या ..पर अब वो सब पीछे छूट गया है ... )

मेरे ख्याल से जब हम दूसरों पर गुस्सा निकाल रहे होते हैं तब असल में हम कहीं ना कहीं  खुद अपने आप पर ही गुस्सा हो रहे होते हैं.  गुस्से की  वजह कुछ भी हो सकती है ..अपनी ही कोई गलती, कोई कमी या कमजोरी , कोई असफलता, कोई असमर्थता, कोई अक्षमता, कोई मजबूरी या कोई और परेशानी. "तू मुझसे और मैं खुद से परेशान, ऐसे में किसको कौन मनाये "  ये guide फिल्म का गाना है और इस स्थिति को बिलकुल सही तरीके से दर्शाता है. हम गुज़रे कल से खफा हैं. हम आने वाले कल से खफा हैं. हम अपने आज से खफा है. जो हो रहा है उस  से खफा हैं.. जो नहीं हो रहा उस से भी खफा हैं. जो हो नहीं सकता ..हम उस से भी खफा हैं. किस किस चीज़ से हम खफा नहीं , ये कहना ही मुश्किल है. हम इस कदर खफा हुए  फिर रहे हैं कि ज़िन्दगी का कोई मोड़, कोई कोना ऐसा नहीं छूटा जिसको बोझ और ज़िम्मेदारी से ज्यादा कुछ अहमियत मिल रही हो..

हम  खफा है क्योंकि  हमारी कुछ  अपेक्षाएं  थीं जो  पूरी नहीं हुईं, हो नहीं सकतीं  और शायद होनी भी नहीं चाहिए। खफा इसलिए क्योंकि वो अपेक्षाएं जायज़ नहीं थीं ...शायद उनकी दिशा और लक्ष्य सही नहीं था . हम  हर उस  चीज़   से,  उस   बात   से  खफा हो सकते हैं जो हमें अच्छा नहीं लग रहा, जो पसंद नहीं है। अब इस पसंद नापसंद, अच्छे बुरे  की परिभाषा और भी कठिन है।..कभी कभी तो मनमानी भी... ये बदलती रहती है ..आखिर इंसान हैं  फिर उनका मूड भी है ...और आजकल  एक  फैशन  सा हो गया  है  आदत  बन गई है हमारी ये कह देने कि ...." I AM OUT OF MY MIND".



पर एक   बात   पर हम   ध्यान    नहीं देते  ( अपने गुस्से की  वजह  से )...कि   इस   तरह  हम   अपनी ज़िन्दगी  को बस और  ज्यादा बोझिल  ही बनाये  फिरते हैं ...जाने कौन  कौन सी  चीज़ों का ,  गांठों  का बोझ   हम   अपने  छोटे  से दिमाग और नाज़ुक से  दिल पर उठाये चले जा रहे हैं...हम भूल  जाते हैं कि  ये   गांठें, ये बोझ हमारे अपने बनाए हुए हैं।  अपने ही मन का कोई तर्क, कोई पूर्वाग्रह या कोई बंधन  होता है। इंतज़ार में बैठे रहते हैं कि  कोई आये  और आकर गांठें खोले ... और अक्सर इस चक्कर में हम हर उस चीज़ को दोष दिए फिरते हैं अपने खफा होने  जो  इन गांठों का कारण हो सकने की ज़रा भी  संभावना रखती है।  एक वजह और भी मुझे लगती है और वो है कहीं ना कहीं हमारा अपना अहम् ...हम अपने मन से पलट के सवाल नहीं करते ...उसके फ़ालतू सवालों को चुप भी नहीं करवाते....क्योंकि समय बहुत है हमारे पास इन गांठों को संभाल के रखने , उनको सहेजने और  उनका post mortem करने का.

ये गांठें दरअसल  प्रतीक हैं,  कुछ जड़ हो गई या मर चुकी, नष्ट हो चुकी चीजों का, रिश्तों का, अपेक्षाओं का , इच्छाओ का ....पर फिर भी हम उनके अवशेषों का बोझ उठाये चल रहे हैं ..थक नहीं रहे इस कसरत से  जिसका कोई अंत पार भी नहीं.....जिसका कोई नतीजा,  हासिल या अर्थ नहीं  निकलना .....

नाराज़ हम खुद से और दोष बेचारी दुनिया का..नाम बदनाम लोगों का ...कारण कि हमारा दिल-दिमाग हर बार ऐसा कुछ बहाना, कुछ ऐसा ख्याल, तफसीलें, कहीं ना कहीं से ढूंढ ही लाता है, जिसके बूते हम खुद को तसल्ली दे कर सारा ठीकरा औरों के  सर  डाल देते हैं. क्योंकि पक्के तौर पर हमारे दिल को ऐसा यकीन है  कि एक सही इंसान बेचारा, किस्मत का मारा,  गलती से, गलत वक़्त, गलत जगह और गलत परिस्थितियों का शिकार हो  गया है और गलत लोगों के बीच  फंस गया है. बड़ा चालाक लेकिन समझदार है इंसान का दिल. थोड़ा बुरा है पर ऐसा भी बुरा नहीं . अपने  ही मन ने उलझा रखा है.  किसी अजायबघर में रखने की चीज़ है इंसान का दिल और दिमाग.

खुद से नाराज़गी का आलम ये कि कुछ चाहिए पर क्या यही नहीं पता, पता हो तो कैसे मिलेगा ये नहीं पता, इतना भी पता हो तो उस तक जाने का रास्ता नहीं पता...शायद हम इसलिए भी खफा हैं क्योंकि कुछ खो गया है, छूट  गया है हाथ से, या कुछ खो देने का डर है. ऐसा ना हो कि बड़ी मुश्किल से जो एक चीज़ हाथ में संभाल रखी है वो फिसल जाए दुनिया के जंजाल में. इसलिए हम बात बेबात भी खफा हो जाते हैं. इसलिए आजकल लोगों से बात करना, कुछ कहना, पूछना भी  एक सवाल  हो गया है..क्या पता कौन किस बात पे खफा हो..कब किस कही हुई बात से वो नाराज़गी और बढ़ जाए. कोशिश सभी यही करते हैं कि बाहरी तौर पर सभ्यता का, मुस्कराहट का, विनम्रता और ऐसी हर चीज़ का आवरण बना रहे ...पर फिर भी आखिर इंसान हैं ...इसलिए दूर दूर से ही बतियाना (exchange of greetings ) यही वक़्त का सबक है.

मैं आज ये सब क्यों लिख रही हूँ , क्योंकि सचमुच मुझे भी नहीं पता ...ये इतना सब तो  मेरी आप बीती  नहीं ..पर कुछ आस पास देख कर, सुन कर, महसूस कर या कभी खुद भी उसी  का हिस्सा बन कर लगता है कि  "कुछ हम खुद से खफा, कुछ ये ज़िन्दगी हम से खफा, कुछ ये दुनिया हम से खफा, कुछ ...हम सब एक दूसरे से खफा". जो हो नहीं सकता, जो कभी था ही नहीं ,  वो जो होना नहीं चाहिए ...उसके हो जाने की आस में हम खफा हुए फिर रहे हैं।

लेकिन इस सब में हम ज़िन्दगी से, खुद से और दूसरों से प्यार करना,  कबूल करना, आगे बढ़कर हाथ थामना ...ये सब भूल गए हैं, भूलते जा रहे हैं.... पर फिर भी उम्मीद यही लगाए हैं कि दूसरे लोग हमसे प्यार करें, सर आँखों, पलकों  पर बिठाएं ..खुद हम अपने लिए या किसी के लिए इतना ना कर पाएं ..पर दिल को उम्मीद यही है ..कुछ गलत तो नहीं है??

4 comments:

RAJANIKANT MISHRA said...

going good...... now writing on emotions ......... keep writing .....

nishkam said...

hey bhavana good one......shayad bahut dino se aisa hi kuch padhna chah raha tha...aaj padh hi liya aap ke karaan......

third para bahut hi soch samajh kar likha gaya hai......and it shows good understanding and command over emotional aspects

मनीष said...

किसी बात पर मैं किसी से खफा हूँ
मै जिन्दा हु पर जिंदगी से खफा हूँ...
पढ़ कर यही गाना याद आया है, अच्छा लिखा है...
अच्छी feelings है....
:)

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 05/10/2012 को आपकी यह खूबसूरत पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!