Tuesday 9 August 2011

चार अध्याय : A Review



  "चार अध्याय"  रवीन्द्रनाथ टैगोर का बहुत प्रसिद्द उपन्यास है , इसकी पृष्ठभूमि है ३० और ४० के दशक का बंगाल का क्रांतिकारी आतंकवाद,  उस आन्दोलन से जुड़े संगठनों के भीतरी हालात और ख़ास तौर पर  क्रांतिकारी आन्दोलन में  औरतों की भूमिका, जो ३० के दशक में इस आन्दोलन की  सब से बड़ी विशेषता थी और जो  इसके पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर खुल कर नहीं दिखी थी,  उस पर आधारित है.  कहानी कहने की  सुविधा के लिए उपन्यास   को चार अध्यायों में बांटा गया है.

पर इस उपन्यास को केवल क्रांतिकारिता तक सीमित करना इसके साथ अन्याय होगा; असल में "चार अध्याय" एक प्रेम कथा है "ऐला और अतीन" की, दो विपरीत धाराओं  की, दो लोग जो एक दुसरे से प्यार करते हैं  लेकिन प्रेम को एक सुखद अंत तक नहीं पहुंचा सकते क्योंकि वे बंधे हैं अपने आदर्शों और प्रतिज्ञाओं से.
. वैसे, इस उपन्यास और इसके विषय का  तथ्य आधारित विश्लेषण  तो कोई इतिहासकार ही कर  सकता है, मैंने  यहाँ केवल  एक विनम्र प्रयास किया है टैगोर के इस उपन्यास  पर अपने  विचार प्रकट करने का. 



प्रेम कथा के माध्यम से  "चार अध्याय"   क्रांतिकारी  आन्दोलन  के एक कम दिखने वाले और छिपे हुए पक्ष को सामने लाता है, वो चेहरा जो आमतौर पर देशप्रेम, बलिदान, शहादत  गौरव की भारी-भरकम शब्दावली के आगे दिखाई  नहीं दिया और उसकी भयंकरता का अहसास बहुत बाद में हुआ. अतीन  के शब्दों में जो ताकतवर के विरुद्ध लड़ाई में बिना उपाय के उस ताकतवर की  बराबरी में खड़ा होता है, इस से ही उसके सम्मान की रक्षा होती है. मैंने भी उसी सम्मानपूर्ण अधिकार  की  कल्पना की थी." 


टैगोर के विचार से हिंसा का प्रतिउत्तर उतनी ही व्यापक हिंसा और अन्याय से  देना  देश की  आत्मा और उसकी प्रवृति के विरुद्ध था और ना ही इससे मनुष्यता  के  धर्म का पालन होता था. इसके अलावा  ..औरतों का हिंसक या ध्वंसात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेना , टैगोर के  मुताबिक़ उनकी वात्सल्य और ममतामय प्रकृति के खिलाफ है.  

और इसीलिए उन्होंने ये दिखाया है कि जब हम कुदरत के बनाए नियमों  और अपनी स्वाभाविक प्रवृति -प्रकृति के विरुद्ध  जाकर काम करते हैं तो उसका परिणाम निराशा, पराजय और पछतावे के अलावा और कुछ नहीं रहता.


           ये उपन्यास बताता है कि किस तरह अनेक बार  दल के  मुखिया को  ही अपने दल के उन  सदस्यों  को किनारे कर देना पड़ता था, जो अब उनके किसी काम के नहीं रह गए या जो अपने हिस्से का काम कर चुके और अब उनसे छुटकारा पा लेने में कोई बुराई नहीं।  ऐसे भी लोग जो दल के  बारे में, उसके सदस्यों के बारे बहुत कुछ जान चुके हैं और यदि वे पुलिस के हत्थे चढ़े तो शायद सब कुछ बता दें  या उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी उनके काम को प्रभावित कर रही हो; उन्हें रास्ते से हटा देना ही सही उपाय माना गया.. ये क्रांतिकारी आन्दोलन का ऐसा क्रूर चेहरा था जिसे फ़र्ज़ और  देश के नाम पर जायज़ माना गया. भले ही इसके लिए निर्दोष लोगों को वक़्त-बेवक्त मरना या मारना पड़ा या  कभी व्यक्तिगत रंजिशों के नाम पर या दल का तथाकथित शुद्धिकरण ...बहाना कुछ भी हो सकता था ...             

सबसे बड़ी समस्या ये थी कि किसी भी बड़ी-छोटी  आतंकवादी घटना में गिरफ्तारी होने के बाद जो जेल और यातनाओं का दौर शुरू होता था..उसकी असलियत वहाँ पहुँचने पर ही सामने आती  थी और उन नौजवानों के परिवार और लगभग हर वो इंसान जो कभी भी, किसी भी रूप में उन बेचारे "आतंकवादियों"  से  जुड़ा रहा, उसका भी शेष जीवन नरक ही होना निश्चित था. यही कारण  था कि बलिदान और व्यक्तिगत शौर्य का जो रास्ता दिखाया गया उसकी निरर्थकता वे लोग खुद भी समझने लगे थे. भगत सिंह ने भी बाद के दिनों में अपनी जेल डायरी में लिखा था कि "युवा हिंसक क्रांति का रास्ता छोडें और खुलकर आन्दोलन चलायें" . यदयपि तीस के दशक  में एक समय ऐसा आया था जब भगत सिंह और उनके साथियों कि लोकप्रियता अन्य राष्ट्रीय  नेताओं  के बराबर ही थी  पर फिर भी  हम देखते हैं कि ४० का दशक आते आते ज्यादातर क्रांतिकारी या तो समाजवादी बन गए  या कम्युनिस्ट.  उस समय के अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों ने भी यही माना बाद में  कि, व्यक्तिगत बलिदान की घटनाओं से कुछ वक़्त के लिए लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है , अपनी विचारधारा का प्रचार भी किया जा सकता है, लेकिन अंततः आज़ादी का रास्ता राजनीतिक आन्दोलन से ही गुज़रता है. 

ख़ास तौर से जब उपन्यास ये दिखाता  हैं कि किस  तरह आन्दोलन के लिए पैसा जुटाने के लिए कई बार क्रांतिकारियों को आम लोगों  को भी लूटना या मारना पड़ता था तब समझ आता है कि
क्यों क्रांतिकारी आतंकवाद को खुलकर आम जनता का समर्थन नहीं मिल पाया...लेकिन फिर हमारे  सामने सूर्य सेन और बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र  के दूसरे क्रांतिकारियों  के संघर्षों के भी उदाहरण हैं ही..इसलिए काफी दुविधा जैसी स्थिति दिखती है..पर ये तो सच ही है कि क्रांतिकारिता नौजवानों से आगे नहीं बढ़ी ... 
                      
फिलहाल लौटते हैं मूल विषय, यानी उपन्यास की कहानी की तरफ, अर्थात एला और अतीन की तरफ जो इस कहानी के मुख्य पात्र हैं, .दो असाधारण व्यक्तित्व  जो उतनी ही  असाधारण परिस्थितियों में फंसे हैं.  एक बात फिर से  यहाँ कहनी होगी कि "चार अध्याय" मूलतः एक प्रेम कथा है, और हमें इस कहानी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा..हालाँकि यहाँ प्रेम कथा आज़ादी के लिए तथाकथित  संघर्ष के साथ इस तरह घुलमिल गई है कि दोनों को अलग करना मुश्किल हो जाता है..जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने अतीन से कहलवाया भी है कि  " देश  की साधना और  तुम्हारी साधना एक हो जाने के कारण ही देश इसमें दिखाई देता है"....क्रांतिकारिता अतीन का लक्ष्य नहीं था, उसकी अभिरुचि  भी नहीं है  लेकिन एक बार इसमें शामिल होने के बाद पीछे हटने का उपाय नही. 

अतीन का चरित्र जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे मज़बूत होकर निखरता जाता हैअतीन  की  रूचि है कविता, साहित्य लेकिन ऐला के आकर्षण में बंधकर  और ये
समझकर कि उसे प्राप्त करने और उसके पास आने  का और कोई उपाय नहीं सिवाय
इसके कि वो भी इस दल में शामिल हो. इसलिए अतीन  कहता है कि  " किसी ज़माने
में वीरता  के ज़ोर से योगयता दिखाकर नारी को प्राप्त करना पड़ता था।  आज
उसी प्रकार प्राण देने का अवसर मिला है मुझे।"

अब आते हैं एला पर, उसका चरित्र बहुत  से उतार  चढ़ाव से गुजरता है ...कहानी की शुरुआत में उसका चरित्र एक अदभुत ऊंचाई और शक्ति के साथ पाठकों के सामने आता है और बस बाँध लेता है अपने आकर्षण मे.  इंद्रनाथ  उसकी क्षमताओं को समझ कर उसे अपने साथ शामिल कर लेते हैं. यदयपि बह सीधे तौर पर किसी हिंसक गतिविधि से नहीं जुडी, उसका काम प्रतिभावान  लोगों को दल से जोड़ना है. इंद्रनाथ के विचार में  एला से बेहतर और ज्यादा भरोसेमंद (उसकी विशेष पारिवारिक परिस्थितियों और खुद उसके विद्रोही व्यक्तित्व के कारण जो परम्परागत आचार विचार, रूढ़ियों को नहीं मानता, जो अपने जीवन कि दिशा स्वयं निर्धारित करना चाहती है) और कोई हो नहीं सकता...जो भी है ..एला हालाँकि खुद को इतने ऊँचे आसन पर देखना नहीं चाहती ..पर साधारण जीवन , एक साधारण मनुष्य की तरह बिताना भी उसके वश में नहीं ..और कुछ देश प्रेम और बलिदान के गौरव के कारण इस दिशा में खिंची आई है. लेकिन जैसे जैसे क्रान्ति और बलिदान की वास्तविकता सामने आ रही है , वो इंद्रनाथ की आलोचना से भी नहीं झिझकती. वह कहती है, "जितने ही दिन बीतते जाते हैं, हमारा उद्देश्य उद्देश्य ना रहकर नशा होता जा रहा है."

इंद्रनाथ देश के एक बड़े क्रांतिकारी दल के प्रमुख सूत्रधार और कर्ता  धर्ता सब कुछ हैं. विज्ञान में  उच्च शिक्षित और असाधारण रूप से प्रतिभाशाली प्रोफेसर  किन्तु तत्कालीन व्यवस्था के हाथों अपमानित व्यक्ति। उनको देखकर कुछ हद तक चाणक्य और उसकी प्रतिज्ञा याद आती  है. वे अच्छी तरह से समझते हैं कि शक्तिशाली ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़ाई जीतना आसान नहीं ये बात उनका सहायक कन्हाई गुप्त स्पष्ट कहता भी है। … "तुम जिस व्यवसाय में लगे हो वह आज या कल दिवालिया होकर तो रहेगा ही."  इस सत्य को जानते हुए भी इन्द्रनाथ कहते हैं कि " यहाँ हार भी बड़ी है और जीत भी बड़ी है."   अपना अलग रास्ता बनाने के लिए और अपनी शक्ति दिखाने   के लिए वे लोग इस रास्ते पर बढ़ते जा रहे हैं. शायद इसलिए  कन्हाई  इंद्रनाथ से कहता है . ."..अंत में खतौनी के खाते में आग लगाकर हम लोगों से मज़ाक  ना करना भाईसाहब..उसके हरेक सिक्के में  हमारी छाती का खून है "..



दल के इस भीतर इस विरोधाभास और आत्मनाशी  निरर्थकता को अतीन   समय रहते ऐला से पहले ही समझ और जान लेता है लेकिन जैसा कि  टैगोर ने उसके लिए लिखा है कि "कर्म से जिस शासन को स्वीकार कर लिया  है उसका अनादर करने को वह स्वाभिमान के ही विरुद्ध समझता है."   ..अतीन का चरित्र जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे मज़बूत होकर निखरता जाता है,  उसी के ज़रिये क्रांतिकारी आन्दोलन के इस छिपे चेहरे को टैगोर  सामने लाते हैं.   



रवींद्रनाथ ने इस कहानी को बेहद खूबसूरती से बुना है, ये उपन्यास उनकी अनोखी लेखन शैली और  मौलिक उपमाओं के कारण बहुत रोचक है.  इस उपन्यास को पढ़ते समय युद्ध की  पृष्ठभूमि पर बनी  फिल्में याद आती है, क्योंकि यह भी एक प्रकार का युद्ध ही है; देश में चल रहा स्व्तंत्रता का युद्ध, ऐला के मन के भीतर चलता हुआ युद्ध।   यह प्रेम की पुकार है जो ऐला को हज़ार खतरों के होते हुए भी अतिन्द्र के छुपने के  स्थान पर पहुंचा देती है. साथ ही जब वो देखती है कि अतीन का दल में आना और उसका ये सब अकथनीय तकलीफें झेलना किसी महान उद्द्देश्य का हिस्सा नहीं, साथ ही उसकी स्वयं की प्रकृति के भी खिलाफ है तब उसके सारे प्रण, प्रतिज्ञाएं, नियम टूटने या छूटने  पर आ जाते हैं ..पर अब  पीछे जाने या कहीं आगे बढ़ने का कोई रास्ता शेष नहीं. 

एक स्थिति  ये भी है कि आँखें  बंद किये जिस रास्ते पर चलने का उपदेश इंद्रनाथ दे रहे हैं और एला उसमे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित  कर रही है उसकी वास्तविकता  जब अतीन के ज़रिये जैसे जैसे सामने आती जाती है, वैसे वैसे एला का प्रण भी कमज़ोर होता गया लेकिन उतने समय में अतीन आगे निकलता गया. एला में आगे जाकर जो कमजोरी या बिखराव दिखता है उसका कारण या जवाब बहुत सरल है, कि जब मस्तिष्क पर प्रेम की आज्ञा शासन करती है तब और कोई नियम कायदा या क़ानून महत्त्व नहीं रखता 
       
  कहानी का अंत दुखांत है ..जब एला को अतीन खुद मार देता है  क्योंकि अब उसकी उपयोगिता दल के लिए समाप्त हो गई है और वो किसी समझौते के लिए भी तैयार नहीं है ऐसे में  यही  एक सम्मानजनक उपाय बचा है और  अतीन के लिए तो पहले से ही दल और उसके कुछ सदस्यों ने trap तैयार कर ही रखा है.

 हर आन्दोलन के दो पक्ष होते हैं, उजला और स्याह ..एक वो जो लोगों की श्रद्धा और सम्मान हासिल करता है दूसरा अँधेरे, नफरत और उपेक्षा के ही काबिल होता है ...कोई भी राजनीतिक या ऐसा कोई आन्दोलन चाहे वो दुनिया के किसी भी हिस्से में हुआ हो, इस नियम का अपवाद नहीं है ...यहाँ  मुझे दो और किताबें याद आ रही है. एक तो कुर्रतुल एन हैदर का "आखिरी शब् के हमसफ़र"  और दूसरा लेखक का नाम अब याद नहीं पर  उपन्यास का शीर्षक था "अनित्य " ..ये दोनों ही उपन्यास क्रन्तिकारी आन्दोलन, गांधीवादी राजनीति और कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदरूनी हालात, उनकी कमजोरियों और आज़ादी के बाद उनके वो बड़े बड़े नाम जो कभी सिद्धांत और विचारधारा का पर्याय थे उनकी असलियत को बड़ी खूबसूरती से सामने लाते हैं..


    जैसा कल्पना दत्ता ने कहा था .. "हमारा बलिदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेगा और  इसी में हमारी मृत्यु की सार्थकता है"....शायद इसी पक्ष को टैगोर अनदेखा कर गए..फिर भी मेरे विचार से एक बेहतरीन और  अदभुत प्रेम कथानक पर आधारित उपन्यास जिसे खुले दिमाग से पढ़ा जाना चाहिए.

11 comments:

Mukesh said...

Nice Post...

mayank ubhan said...

Nice flow of thoughts Bhavana...the only thing i didnt liked was the use of क्रांतिकारी आतंकवाद term...has shri Rabindranath also used the same?? one lesson ive learnt is.."जब हम कुदरत के बनाए नियमों और अपनी स्वाभाविक प्रवृति -प्रकृति के विरुद्ध जाकर काम करते हैं तो उसका परिणाम निराशा, पराजय और पछतावे के अलावा और कुछ नहीं रहता". Keep the good work goin....thanx...:)

Bhavana Lalwani said...

@Mukesh ..thnk you..nice to see you back on my blog.

Bhavana Lalwani said...

@Mayank...thnks for appreciation ...now yr qstn..kraantikaari aatankwaad term is commonly used by historians for kraantikaari movement of India during the British raj. though many Indian historian criticize the use of this term bt its widely used by all historieans be it British colonial historian or Indian Cembridge school historian. Robindranath himself didnt used this term in his novel at any place. bt I am using it to explain the whole matter.

mayank ubhan said...

ok bhavana...thanx for sharing ur views and upgrading my knowledge... dobts cleared....:))

Bhavana Lalwani said...

pleasure is all mine..tnks for taking so much interest.

मनीष said...

actually i hv not read char adhyaya and therefore your article is slightly bounce over me. so i can not comment on it.
it is ur own view. may be mine will different.
so... no comment. :)

Bhavana Lalwani said...

@Manish..thnks for feedback.

Samrat said...

Priyo Bhavana

i chanced to read your review about Char Adhyay and couldn't resist commenting..despite reading hindi is bit of a discomfort for me still i trudged my way...

the story is essentially a love a story... and it is to be analyzed with a focus on this perspective mainly... on the backdrop comes the ruthless face of nationalist movement... one should be careful not to mix the relative importance of these 2 aspects

Tagore is a humanist and universalist and is beyond narrow interests.

The character of Ela is of a powerful woman who is much ahead of the other women of the period concerned...the character is developed beautifully... many 'good' suitors are rejected by her ... she is not satisfied easily or by simple things ... such an ela is attracted by a dynamic and larger than life indra and sucked into national politics...almost converted into a soother for the group an adhesive that can be used hold them together... and ela is all happy by the role she has received and the importance attached to it... this till she meets atin and is overwhelmed by him...after that she tries to come out of it but the wily Indra doesn't let her... and uses her for the organisation,after all she is too precious to be lost so easily

Atindra has come into this only because he loved ela and nothing else and he only wants her and nothing else... he pursues her till a point but when ela comes to her ,realizing the artificial path she is following, it had been too late, they both being sucked into it too deep to get out of it ...

still their love never dies...
and also both of them doesn't escape what they are doing ... though they both realize what they are doing is not perfect... they both are committed to it... but ela is not petrified by the thought that atin has come to kill her or starts hating her...but she feels fortunate to be killed by his love...

two other aspects : the invisible controller of this relation indra who pulled the strings at the right juncture to serve his interests
and the human jealousy of batuk...

Tagore doesn't glorify anyone here, he isn't immature to do so...but rather he brings out characters true to life...the beauty and strength of human love...which doesn't bother about anything else...

if u have certain specific doubts please ask..i would be more than happy to answer

if possible see kumar sahnis char adhyay .. its a poetic imagery... and also u would get the concept of devi creation and submersing her after the need is over

there is too much too discuss about any work of tagore..its so deep..so unless u ask i might lose my way

thanks

Samrat said...
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Bhavana Lalwani said...

Thanks alot Samrat.you have rightly pinpointed my mistakes..I have reread the novel and soon will rewrite the review. right now I wont give any more explanation coz still I hv sm differences and disagreements wid u ..