Friday 19 August 2011

मेरा सपना भी तुम और सच भी तुम...

मेरा सपना भी तुम और सच भी तुम..खुली आँखों के चमकते जुगनू  भी तुम और बंद आँखों की पलकों का सुकून भी तुम ...जागती  हुई  आँखों  के आगे का नज़ारा भी तुम और बंद आँखों का भ्रम भी तुम.   क्या सच , क्या सपना ..सब कुछ सिमट कर एक ही रंग,  एक ही रूप, एक ही आकार, एक ही सांचे में ढल गए... मेरा तो सपना भी तुम और सच भी तुम...तुम्हारे लिए सपना , मेरे लिए वही जीवन...चमकती सुबहों की मसरूफियत या थकी हुई शामों का अँधेरा ...


जो सपना तुमने बंद आँखों से देखा , वो मेरी खुली आँखों का सच बन गया , तुमने तो सपना देखने को कहा  लेकिन मेरी आँखों ने उस दूर के क्षितिज के तारे को ही सच मान लिया ..सपने हम दोनों ने मिलकर देखे या शायद तुमने दिखाए और कहा कि एक दिन हम मिलकर इन्हें ज़मीन पर उतार लायेंगे ....

सपने ही तो एक दिन सच बनते हैं ..सपनों के बीज से सच की फुलवाड़ी खिलती है ..सपनों के रंगों से सच की तस्वीर आकार लेती है.....  और इस तरह  धीरे-धीरे  दबे पैर, बिना हमें बताये , कब चुपके से सपने ज़िन्दगी के सच को ढक देते हैं पता ही नहीं चलता....


मेरा तो सपना भी तुम और सच भी तुम,  कहने को तो सपना एक भ्रम  है, illusion है,  परछाई है पर जब सपना जागती आँखों का सच बन जाए तो भ्रम और वास्तविकता के बीच की सीमाएं  मिट जाती हैं ..और मैंने भी मिटा दीं... जागती आँखों का सपना, बंद आँखों का सपना, जागती आँखों का सच और बंद आँखों की परछाई कब ये सबकुछ एक दूसरे में मिल गए, मुझे  खबर तक ना हुई.

समय के तीन आयामों में चौथा आयाम और जुड़ गया, सपनों का आयाम.  सुबह की रौशनी  और दिन की भागदौड, शाम की थकान और रात के धुंधले  जुगनुओं की चमक सब कुछ सपनों के आयाम से जुड़ गए,  मिल गए उसमे और खो गए.  कुछ खबर नहीं कि ज़िन्दगी सपने में जी रहे हैं या वास्तविकता  के धरातल पर , जो कुछ खबर है तो सिर्फ यही कि बड़ा ही सुन्दर  नज़ारा आस-पास है, जैसे किसी कैनवास पर बड़े ध्यान और लगन से बनी एक मोहक तस्वीर, जो छू देने भर से मैली हो जाती हो.


ऐसे सुन्दर सपने  तुमने दिखाए,  मैंने देखे, हमने मिल कर देखे , सपनों में जीने लगे , भूलने लगे शेष तीन आयामों को . पर फिर एक दिन ..सपना तो ना टूटा पर लगा कि इस सपने में कुछ कमी आ गई है , कैनवास की तस्वीर के रंग फीके हो गए हैं, मिटने लगे हैं ..नज़रें कुछ तलाशने लगीं, आस-पास, दूर कोने-अंतरों में,  कहीं कुछ जाना पहचाना दिख जाए शायद..

पर नहीं , अब सपना था, मैं भी, पर तुम नहीं हो,  इस सच जैसे दिखने वाले और मेरे जीवन के बन चुके  सच वाले  सपने में अब तुम नहीं हो...कहां हो, इसकी खबर नहीं,  मेरा तो सपना भी तुम और सच भी तुम...

अब सपना  ही  सच बन गया है, आदत हो चली है इस सपने की, इसमें रहने और जीने की,  कि अब इस से बाहर निकलना तकलीफ देता है,  कि अब मानने को जी नहीं चाहता कि सपना अब नहीं रहा, कहीं उसका नाम निशान भी नहीं , फिर भी उस गुज़ार चुके सपनों के संसार की  याद में कि जिसका हर पत्थर हमने अपनी कल्पना और आँखों की चमक से सजाया था..एक बार फिर से कह लेने दो कि मेरा सपना भी तुम और सच भी तुम ...सपना ही सही पर .. मेरा अपना हो तुम ..

Monday 15 August 2011

मालंच : A review

 जापान में एक कहावत है कि "बगीचे का काम कभी ख़त्म नहीं होता, जब हो जाता है तब इंसान मर जाता है".  पर उस वक़्त  क्या होता है जब इंसान भी जिंदा है और बगीचे का काम भी अधूरा पड़ा है. 

            मालंच बंगला भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है "फूलों का बगीचा". इस  शब्द  से  मैं  पूरी  तरह  अपरिचित  नहीं  हूँ, पहले पहल इसे  शिवानी गौरा  पन्त की किताब में पढ़ा था, शान्तिनिकेतन के एक प्रोफ़ेसर अनिल चंदा के घर का नाम भी मालंच था...मुझे ये शब्द तब से बहुत आकर्षित करता रहा है ..जब कि इसका अर्थ भी मालूम न था. 

मालंच, रवीन्द्रनाथ टैगोर की   एक लघु उपन्यासिका  है और मेरे विचार से इसे उपन्यास के बजाय एक लम्बी कहानी जैसी क़ि कुर्रतुल एन हैदर ने लिखीं है, उस श्रेणी में रखा जा सकता है. मालंच कहानी है नीरजा की और उसके बगीचे की, बगीचा कोई आम छोटा मोटा घर का फूल पत्ती या सब्जी उगाने का बगीचा नहीं असल में उसके पति का  बेहतरीन और अनेक देशी विदेशी  किस्म के फूलों और पौधों का कारोबार है. ये बगीचा उनकी ज़िन्दगी का अटूट हिस्सा है और नीरजा ने भी बगीचे के काम को इस तरह अपने अस्तित्व के साथ मिला लिया  कि दोनों में कोई फर्क नहीं रह गया. लेकिन बगीचा तो यहाँ महज एक प्रतीक है,  कहानी कहने का माध्यम है ..असल मुद्दा है, स्त्री की मानसिकता, उसकी मनः स्थिति, उसका अधिकार क्षेत्र और अधिकार जताने और उसे बनाये रखने की प्रबल इच्छा जिसको दिखाने में, बयान करने में रवीन्द्रनाथ ने (शिवानी के शब्दों में कहूँ तो..) कलम तोड़ कर रख दी  है. 


 जब स्त्री का ये  अधिकार  किसी भी कारण या अकारण या लगने भर के लिए ही लगे कि,  मेरा ये  सारा ऐश्वर्य छिन रहा है, कि एक दूसरी औरत फिर वो जो भी है, उस पर हक जमाने का प्रयास कर रही  है तो मन बुद्धि सब बस के बाहर हो जाते हैं तब सही गलत, उचित- अनुचित, भला- बुरा कुछ नहीं सूझता या दिखाई देता है   ...दिखता है तो  बस छिनता हुआ साम्राज्य.

यहाँ  एक स्त्री के मन, उसकी इच्छाओं, उसके सुख-दुःख के अहसासों और इन सबके ऊपर उसकी कमजोरियों का चित्रण करने में रवीन्द्रनाथ को कमाल की सफलता मिली  है . यहाँ प्रेमचंद की एक नायिका याद आती है, "बड़े घर की बहू आनंदी" ..मैंने ये उपन्यास  तो नहीं पढ़ा पर कहीं उसका एक सन्दर्भ पढ़ा था क़ि  आनंदी के पास अभिमान और मान करने योग्य एक ही चीज़ है और वो है उसका पति, घर-गृहस्थी . यही उसका संसार और जैसा किसी मैगजीन  की कहानी में पढ़ा था ..."मेरा घर मेरा साम्राज्य".


और यही बात नीरजा पर भी लागू हुई, एक औरत अपने जीते-जी, आँखों के सामने अपना संसार, जिसे  उसने अपनी आत्मा से सींचा, किसी और को नहीं दे सकती. भले ही वो खुद अब उसे संभाल ना पा रही हो( अपनी लम्बी बीमारी की वजह से अब नीरजा बगीचा तो दूर घर की देखभाल भी नहीं कर सकती). भले ही उसे पता हो कि किसी के ना संभालने पर घर का ये बगीचा नष्ट हो जाएगा, पर फिर भी अपने  अधिकार का मोह छोड़ना बेहद मुश्किल है. उस से भी ज्यादा मुश्किल है ये स्वीकार करना कि मेरे बाद, मेरे पीछे , मेरा नामो-निशान , मेरा कोई चिहन भी शेष ना रहेगा...कल तक जिस महल का वैभव मेरे कारण था , वही कल मुझे भूल कर किसी और के व्यक्तित्व से महकेगा और जब वो  गृह स्वामिनी, वो कल की ऐश्वर्य लक्ष्मी  बीमार और कमज़ोर हो जाए तब इंसान का मन नकारात्मक रूप से शक्तिशाली हो जाता है.  बगीचा, जिसका हर कोना, हर हिस्सा नीरजा और उसके पति के हाथ से बना है, अब नीरजा के आँखों के सामने है पर अपनी बीमारी के चलते अब वो वहाँ चल कर जा भी नहीं सकती, वहाँ काम करना या उसे संभालना तो दूर की बात.

सरला को नीरजा के बीमार होने के कारण बगीचे की  सार-संभाल के लिए बुलाया गया. उसे फूल पौधों और बगीचे के हर काम की जानकारी विरासत में अपने ताऊ जी से विरासत में मिली, जिन्होंने आदित्य को भी यही काम सिखाया और रोज़गार शुरू करने में सहायता भी दी. आदित्य का  कहना कि, "सरला  को मैंने आश्रय दिया है या उसके आसरे में रहकर मैं यहाँ तक पहुंचा हूँ?"  और सरला का ये उलाहना कि, "....नाप तौल में मेरी तरफ से कुछ कम नहीं हुआ..फिर अचानक मुझे धक्का क्यों दे दिया गया...?"  ये दो सन्दर्भ ही उन दोनों के प्रगाढ़ लेकिन सहज सम्बन्ध को ज़ाहिर कर देते हैं. पर नीरजा का दुःख कुछ और है. उसे ये सहन नहीं कि कोई दूसरी औरत उसके बगीचे में आये, वहाँ वैसे  ही काम करे जैसे वो अपने अच्छे  दिनों में किया करती थी, अपने  पति के साथ.  कोई तीसरा, जिसे बगीचे के बारे में उस से ज्यादा ज्ञान है..जो उसके और आदित्य के बनाए आर्किड घर तक में प्रवेश पा गया है..ये उसके अस्तित्व को, उसके अधिकार को सीधी  चुनौती है.  ये संकेत है कि अब जाने का, इस घर-गृहस्थी को पीछे छोड़ जाने का समय आ गया है..

और इसलिए कभी नीरजा, सरला को कहीं दूर भेजने की बात कहती है, कभी अपने देवर से उसके विवाह का प्रस्ताव तो कभी आदित्य के जीवन में उसके महत्त्व और उसके  स्थान को स्वीकार कर लेने का प्रयास करती ही रहती है पर पूरी तरह नहीं मान सकती..और इस अंतर्द्वंद के चलते एक ओर उसका स्वास्थ्य और अधिक बिगड़ता जाता है वहीँ उसका मन अपने ही घर में उपेक्षित हो जाने के भय से,   अपना अधिकार और  अपना पृथक  अस्तित्व बचाए-बनाए रखने के लिए नकारात्मक रूप से और अधिक  शक्तिशाली होता जाता है.

नीरजा ये भी समझती है कि ये बंधन ..ये मोह उसे  अपने ही संसार से दूर कर रहा है ..उसे अपनी कमजोरी, अपनी विवशता और इन सबके ऊपर अपने मन की दुष्टता का भी पूरा  अहसास हो  गया है ...लेकिन ये समझते  हुए भी कि सब कुछ, सारे अधिकार  दे डालने में ही मुक्ति है और उसके मन की   शान्ति भी. ..लेकिन  बार बार कोशिश कर के भी, अंत में  सब दे डालने की ख्वाहिश ..सब कुछ को समेट लेने और उसे कस कर मुट्ठी में जकड लेने में बदल जाती है .

और शायद यही वजह है क़ि  लोग अपने और अपने प्रियजनों के नाम से स्कूल, अस्पताल और इमारतें बनवाते हैं, कहीं पूरी कायनात तो कहीं पत्थर की एक पट्टी ही सही पर कहीं न कहीं नाम तो हो कि जाने के बाद याद रखा जाए. नीरजा भी यही चाहती है कि जैसे कैसे भी उसकी उपस्थिति को, उसकी इच्छाओं को, आदेशों को महत्व मिले, बगीचे को लेकर उसकी समझ और ज्ञान को सब लोग आज भी वैसे ही सराहें जैसे कि हमेशा वो सुनती आई है. पर अब ऐसा हो नहीं पा रहा है...

कैसी अजीब है ये ख्वाहिश, कितना तकलीफदेह है, किसी से कहना कि " मुझे, मेरे बाद भी उसी तरह याद रखना, मेरे अस्तित्व को वैसे ही महसूस करना जैसे कि  आज या कल तक करते थे...मुझे आज भी वैसे ही प्यार करो जैसे पहले करते थे..और बाद में करते रहना..तुम्हारे दिल में मेरी वही जगह रहे जो अब तक रही है..."  जैसे कि कहीं ये सुनिश्चित कर लेना चाहता  है मन, कि मेरे बाद भी "मैं" यहीं रहूँगा/रहूंगी.


नीरजा नहीं दे सकती , क्योंकि उसके अपने जीवन  का आधार, उसकी सार्थकता और उसके अभिमान  का आधार ये बगीचा ही है और बगीचा किसके लिए , उसके पति आदित्य के लिए. यानि बगीचा नहीं उसे आदित्य को ही दे देना होगा , जो असम्भव तो नहीं है पर निश्चित रूप से आसान  भी नहीं. अब यहाँ  मुझे याद आई मैथिलीशरण गुप्त की "यशोधरा" और विद्ध्यानिवास  मिश्र की "यशोधरा" ..जो सब कुछ, अपना सारा खज़ाना, ऐश्वर्य यहाँ तक कि अपना बेटा राहुल भी भिक्षु संघ के लिए दे देती है और फिर  भी बुद्ध से पूछती है क़ि "और कुछ...कोई और अभिलाषा शेष है तपस्वी..?"


पर वहाँ  लेने वाला सिद्धार्थ यानि संसार के तथागत और बुद्ध है..पर यहाँ लेने वाला एक बाहरी व्यक्ति है ....नीरजा के लिए तीसरा इंसान पर आदित्य के लिए उसके बचपन की और बगीचे की  साथी  "सरला"  जो खुद भी किसी तरह नीरजा की जगह लेना नहीं चाहती...लेकिन नीरजा उसके हस्तक्षेप को बगीचे में यानि अपने संसार में  सहन कर रही है  वही बहुत माना  जाना चाहिए.  पर सब दे डालने से भी  बड़ी समस्या है  ये बर्दाश्त  करना क़ि जिसके लिए ये सारा प्रपंच, सारा अधिकार और उसकी लड़ाई है, वही अब किसी कारण से छिटक कर दूर होने लगा है या साथ नहीं दे रहा तो प्रयास ये हो जाता है क़ि उस तीसरे के माध्यम से इस आधार को थाम के रखा जाये पर इसके लिए भी त्याग करना होगा  और नीरजा इस त्याग को अपने जेवर और दूसरे प्रतीकों के माध्यम से जताए रखना चाहती है ..."हाँ  मैं बेड़ियाँ डालना चाहती हूँ. ताकि जन्म- मरण में तुम्हारे पाँव निस्संदेह रूप  से  मेरे पास बंधे रहे."


नीरजा की तकलीफ और उसका द्वंद सरला भी समझ रही है  इसलिए खुद ही पूरे परिदृश्य से हट जाना चाहती है ..पर नीरजा ऐसा भी होने नहीं देगी क्योंकि वो सारे सूत्र अपने  हाथों में रखना चाह रही है.


कहने का अंत दुखांत है ..नीरजा मर गई..पर दे नहीं सकी और सरला कुछ ले भी नहीं सकी...

 अंततः रवीन्द्रनाथ टैगोर  की एक बेहतरीन रचना,  जिसका सार है क़ि,  प्रेम और स्नेह जब बंधन हो जाता है तब इन्सान की  आत्मा का ही सर्वनाश कर देता है ..और पता तक नहीं चलता...

 

Tuesday 9 August 2011

चार अध्याय : A Review



  "चार अध्याय"  रवीन्द्रनाथ टैगोर का बहुत प्रसिद्द उपन्यास है , इसकी पृष्ठभूमि है ३० और ४० के दशक का बंगाल का क्रांतिकारी आतंकवाद,  उस आन्दोलन से जुड़े संगठनों के भीतरी हालात और ख़ास तौर पर  क्रांतिकारी आन्दोलन में  औरतों की भूमिका, जो ३० के दशक में इस आन्दोलन की  सब से बड़ी विशेषता थी और जो  इसके पहले कभी इतने बड़े पैमाने पर खुल कर नहीं दिखी थी,  उस पर आधारित है.  कहानी कहने की  सुविधा के लिए उपन्यास   को चार अध्यायों में बांटा गया है.

पर इस उपन्यास को केवल क्रांतिकारिता तक सीमित करना इसके साथ अन्याय होगा; असल में "चार अध्याय" एक प्रेम कथा है "ऐला और अतीन" की, दो विपरीत धाराओं  की, दो लोग जो एक दुसरे से प्यार करते हैं  लेकिन प्रेम को एक सुखद अंत तक नहीं पहुंचा सकते क्योंकि वे बंधे हैं अपने आदर्शों और प्रतिज्ञाओं से.
. वैसे, इस उपन्यास और इसके विषय का  तथ्य आधारित विश्लेषण  तो कोई इतिहासकार ही कर  सकता है, मैंने  यहाँ केवल  एक विनम्र प्रयास किया है टैगोर के इस उपन्यास  पर अपने  विचार प्रकट करने का. 



प्रेम कथा के माध्यम से  "चार अध्याय"   क्रांतिकारी  आन्दोलन  के एक कम दिखने वाले और छिपे हुए पक्ष को सामने लाता है, वो चेहरा जो आमतौर पर देशप्रेम, बलिदान, शहादत  गौरव की भारी-भरकम शब्दावली के आगे दिखाई  नहीं दिया और उसकी भयंकरता का अहसास बहुत बाद में हुआ. अतीन  के शब्दों में जो ताकतवर के विरुद्ध लड़ाई में बिना उपाय के उस ताकतवर की  बराबरी में खड़ा होता है, इस से ही उसके सम्मान की रक्षा होती है. मैंने भी उसी सम्मानपूर्ण अधिकार  की  कल्पना की थी." 


टैगोर के विचार से हिंसा का प्रतिउत्तर उतनी ही व्यापक हिंसा और अन्याय से  देना  देश की  आत्मा और उसकी प्रवृति के विरुद्ध था और ना ही इससे मनुष्यता  के  धर्म का पालन होता था. इसके अलावा  ..औरतों का हिंसक या ध्वंसात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेना , टैगोर के  मुताबिक़ उनकी वात्सल्य और ममतामय प्रकृति के खिलाफ है.  

और इसीलिए उन्होंने ये दिखाया है कि जब हम कुदरत के बनाए नियमों  और अपनी स्वाभाविक प्रवृति -प्रकृति के विरुद्ध  जाकर काम करते हैं तो उसका परिणाम निराशा, पराजय और पछतावे के अलावा और कुछ नहीं रहता.


           ये उपन्यास बताता है कि किस तरह अनेक बार  दल के  मुखिया को  ही अपने दल के उन  सदस्यों  को किनारे कर देना पड़ता था, जो अब उनके किसी काम के नहीं रह गए या जो अपने हिस्से का काम कर चुके और अब उनसे छुटकारा पा लेने में कोई बुराई नहीं।  ऐसे भी लोग जो दल के  बारे में, उसके सदस्यों के बारे बहुत कुछ जान चुके हैं और यदि वे पुलिस के हत्थे चढ़े तो शायद सब कुछ बता दें  या उनकी व्यक्तिगत ज़िन्दगी उनके काम को प्रभावित कर रही हो; उन्हें रास्ते से हटा देना ही सही उपाय माना गया.. ये क्रांतिकारी आन्दोलन का ऐसा क्रूर चेहरा था जिसे फ़र्ज़ और  देश के नाम पर जायज़ माना गया. भले ही इसके लिए निर्दोष लोगों को वक़्त-बेवक्त मरना या मारना पड़ा या  कभी व्यक्तिगत रंजिशों के नाम पर या दल का तथाकथित शुद्धिकरण ...बहाना कुछ भी हो सकता था ...             

सबसे बड़ी समस्या ये थी कि किसी भी बड़ी-छोटी  आतंकवादी घटना में गिरफ्तारी होने के बाद जो जेल और यातनाओं का दौर शुरू होता था..उसकी असलियत वहाँ पहुँचने पर ही सामने आती  थी और उन नौजवानों के परिवार और लगभग हर वो इंसान जो कभी भी, किसी भी रूप में उन बेचारे "आतंकवादियों"  से  जुड़ा रहा, उसका भी शेष जीवन नरक ही होना निश्चित था. यही कारण  था कि बलिदान और व्यक्तिगत शौर्य का जो रास्ता दिखाया गया उसकी निरर्थकता वे लोग खुद भी समझने लगे थे. भगत सिंह ने भी बाद के दिनों में अपनी जेल डायरी में लिखा था कि "युवा हिंसक क्रांति का रास्ता छोडें और खुलकर आन्दोलन चलायें" . यदयपि तीस के दशक  में एक समय ऐसा आया था जब भगत सिंह और उनके साथियों कि लोकप्रियता अन्य राष्ट्रीय  नेताओं  के बराबर ही थी  पर फिर भी  हम देखते हैं कि ४० का दशक आते आते ज्यादातर क्रांतिकारी या तो समाजवादी बन गए  या कम्युनिस्ट.  उस समय के अन्य प्रमुख क्रांतिकारियों ने भी यही माना बाद में  कि, व्यक्तिगत बलिदान की घटनाओं से कुछ वक़्त के लिए लोगों को अपनी तरफ आकर्षित किया जा सकता है , अपनी विचारधारा का प्रचार भी किया जा सकता है, लेकिन अंततः आज़ादी का रास्ता राजनीतिक आन्दोलन से ही गुज़रता है. 

ख़ास तौर से जब उपन्यास ये दिखाता  हैं कि किस  तरह आन्दोलन के लिए पैसा जुटाने के लिए कई बार क्रांतिकारियों को आम लोगों  को भी लूटना या मारना पड़ता था तब समझ आता है कि
क्यों क्रांतिकारी आतंकवाद को खुलकर आम जनता का समर्थन नहीं मिल पाया...लेकिन फिर हमारे  सामने सूर्य सेन और बंगाल, पंजाब और महाराष्ट्र  के दूसरे क्रांतिकारियों  के संघर्षों के भी उदाहरण हैं ही..इसलिए काफी दुविधा जैसी स्थिति दिखती है..पर ये तो सच ही है कि क्रांतिकारिता नौजवानों से आगे नहीं बढ़ी ... 
                      
फिलहाल लौटते हैं मूल विषय, यानी उपन्यास की कहानी की तरफ, अर्थात एला और अतीन की तरफ जो इस कहानी के मुख्य पात्र हैं, .दो असाधारण व्यक्तित्व  जो उतनी ही  असाधारण परिस्थितियों में फंसे हैं.  एक बात फिर से  यहाँ कहनी होगी कि "चार अध्याय" मूलतः एक प्रेम कथा है, और हमें इस कहानी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना होगा..हालाँकि यहाँ प्रेम कथा आज़ादी के लिए तथाकथित  संघर्ष के साथ इस तरह घुलमिल गई है कि दोनों को अलग करना मुश्किल हो जाता है..जैसा कि रवीन्द्रनाथ ने अतीन से कहलवाया भी है कि  " देश  की साधना और  तुम्हारी साधना एक हो जाने के कारण ही देश इसमें दिखाई देता है"....क्रांतिकारिता अतीन का लक्ष्य नहीं था, उसकी अभिरुचि  भी नहीं है  लेकिन एक बार इसमें शामिल होने के बाद पीछे हटने का उपाय नही. 

अतीन का चरित्र जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे मज़बूत होकर निखरता जाता हैअतीन  की  रूचि है कविता, साहित्य लेकिन ऐला के आकर्षण में बंधकर  और ये
समझकर कि उसे प्राप्त करने और उसके पास आने  का और कोई उपाय नहीं सिवाय
इसके कि वो भी इस दल में शामिल हो. इसलिए अतीन  कहता है कि  " किसी ज़माने
में वीरता  के ज़ोर से योगयता दिखाकर नारी को प्राप्त करना पड़ता था।  आज
उसी प्रकार प्राण देने का अवसर मिला है मुझे।"

अब आते हैं एला पर, उसका चरित्र बहुत  से उतार  चढ़ाव से गुजरता है ...कहानी की शुरुआत में उसका चरित्र एक अदभुत ऊंचाई और शक्ति के साथ पाठकों के सामने आता है और बस बाँध लेता है अपने आकर्षण मे.  इंद्रनाथ  उसकी क्षमताओं को समझ कर उसे अपने साथ शामिल कर लेते हैं. यदयपि बह सीधे तौर पर किसी हिंसक गतिविधि से नहीं जुडी, उसका काम प्रतिभावान  लोगों को दल से जोड़ना है. इंद्रनाथ के विचार में  एला से बेहतर और ज्यादा भरोसेमंद (उसकी विशेष पारिवारिक परिस्थितियों और खुद उसके विद्रोही व्यक्तित्व के कारण जो परम्परागत आचार विचार, रूढ़ियों को नहीं मानता, जो अपने जीवन कि दिशा स्वयं निर्धारित करना चाहती है) और कोई हो नहीं सकता...जो भी है ..एला हालाँकि खुद को इतने ऊँचे आसन पर देखना नहीं चाहती ..पर साधारण जीवन , एक साधारण मनुष्य की तरह बिताना भी उसके वश में नहीं ..और कुछ देश प्रेम और बलिदान के गौरव के कारण इस दिशा में खिंची आई है. लेकिन जैसे जैसे क्रान्ति और बलिदान की वास्तविकता सामने आ रही है , वो इंद्रनाथ की आलोचना से भी नहीं झिझकती. वह कहती है, "जितने ही दिन बीतते जाते हैं, हमारा उद्देश्य उद्देश्य ना रहकर नशा होता जा रहा है."

इंद्रनाथ देश के एक बड़े क्रांतिकारी दल के प्रमुख सूत्रधार और कर्ता  धर्ता सब कुछ हैं. विज्ञान में  उच्च शिक्षित और असाधारण रूप से प्रतिभाशाली प्रोफेसर  किन्तु तत्कालीन व्यवस्था के हाथों अपमानित व्यक्ति। उनको देखकर कुछ हद तक चाणक्य और उसकी प्रतिज्ञा याद आती  है. वे अच्छी तरह से समझते हैं कि शक्तिशाली ब्रिटिश राज के विरुद्ध लड़ाई जीतना आसान नहीं ये बात उनका सहायक कन्हाई गुप्त स्पष्ट कहता भी है। … "तुम जिस व्यवसाय में लगे हो वह आज या कल दिवालिया होकर तो रहेगा ही."  इस सत्य को जानते हुए भी इन्द्रनाथ कहते हैं कि " यहाँ हार भी बड़ी है और जीत भी बड़ी है."   अपना अलग रास्ता बनाने के लिए और अपनी शक्ति दिखाने   के लिए वे लोग इस रास्ते पर बढ़ते जा रहे हैं. शायद इसलिए  कन्हाई  इंद्रनाथ से कहता है . ."..अंत में खतौनी के खाते में आग लगाकर हम लोगों से मज़ाक  ना करना भाईसाहब..उसके हरेक सिक्के में  हमारी छाती का खून है "..



दल के इस भीतर इस विरोधाभास और आत्मनाशी  निरर्थकता को अतीन   समय रहते ऐला से पहले ही समझ और जान लेता है लेकिन जैसा कि  टैगोर ने उसके लिए लिखा है कि "कर्म से जिस शासन को स्वीकार कर लिया  है उसका अनादर करने को वह स्वाभिमान के ही विरुद्ध समझता है."   ..अतीन का चरित्र जैसे जैसे कहानी आगे बढ़ती है, वैसे वैसे मज़बूत होकर निखरता जाता है,  उसी के ज़रिये क्रांतिकारी आन्दोलन के इस छिपे चेहरे को टैगोर  सामने लाते हैं.   



रवींद्रनाथ ने इस कहानी को बेहद खूबसूरती से बुना है, ये उपन्यास उनकी अनोखी लेखन शैली और  मौलिक उपमाओं के कारण बहुत रोचक है.  इस उपन्यास को पढ़ते समय युद्ध की  पृष्ठभूमि पर बनी  फिल्में याद आती है, क्योंकि यह भी एक प्रकार का युद्ध ही है; देश में चल रहा स्व्तंत्रता का युद्ध, ऐला के मन के भीतर चलता हुआ युद्ध।   यह प्रेम की पुकार है जो ऐला को हज़ार खतरों के होते हुए भी अतिन्द्र के छुपने के  स्थान पर पहुंचा देती है. साथ ही जब वो देखती है कि अतीन का दल में आना और उसका ये सब अकथनीय तकलीफें झेलना किसी महान उद्द्देश्य का हिस्सा नहीं, साथ ही उसकी स्वयं की प्रकृति के भी खिलाफ है तब उसके सारे प्रण, प्रतिज्ञाएं, नियम टूटने या छूटने  पर आ जाते हैं ..पर अब  पीछे जाने या कहीं आगे बढ़ने का कोई रास्ता शेष नहीं. 

एक स्थिति  ये भी है कि आँखें  बंद किये जिस रास्ते पर चलने का उपदेश इंद्रनाथ दे रहे हैं और एला उसमे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित  कर रही है उसकी वास्तविकता  जब अतीन के ज़रिये जैसे जैसे सामने आती जाती है, वैसे वैसे एला का प्रण भी कमज़ोर होता गया लेकिन उतने समय में अतीन आगे निकलता गया. एला में आगे जाकर जो कमजोरी या बिखराव दिखता है उसका कारण या जवाब बहुत सरल है, कि जब मस्तिष्क पर प्रेम की आज्ञा शासन करती है तब और कोई नियम कायदा या क़ानून महत्त्व नहीं रखता 
       
  कहानी का अंत दुखांत है ..जब एला को अतीन खुद मार देता है  क्योंकि अब उसकी उपयोगिता दल के लिए समाप्त हो गई है और वो किसी समझौते के लिए भी तैयार नहीं है ऐसे में  यही  एक सम्मानजनक उपाय बचा है और  अतीन के लिए तो पहले से ही दल और उसके कुछ सदस्यों ने trap तैयार कर ही रखा है.

 हर आन्दोलन के दो पक्ष होते हैं, उजला और स्याह ..एक वो जो लोगों की श्रद्धा और सम्मान हासिल करता है दूसरा अँधेरे, नफरत और उपेक्षा के ही काबिल होता है ...कोई भी राजनीतिक या ऐसा कोई आन्दोलन चाहे वो दुनिया के किसी भी हिस्से में हुआ हो, इस नियम का अपवाद नहीं है ...यहाँ  मुझे दो और किताबें याद आ रही है. एक तो कुर्रतुल एन हैदर का "आखिरी शब् के हमसफ़र"  और दूसरा लेखक का नाम अब याद नहीं पर  उपन्यास का शीर्षक था "अनित्य " ..ये दोनों ही उपन्यास क्रन्तिकारी आन्दोलन, गांधीवादी राजनीति और कम्युनिस्ट आन्दोलन के अंदरूनी हालात, उनकी कमजोरियों और आज़ादी के बाद उनके वो बड़े बड़े नाम जो कभी सिद्धांत और विचारधारा का पर्याय थे उनकी असलियत को बड़ी खूबसूरती से सामने लाते हैं..


    जैसा कल्पना दत्ता ने कहा था .. "हमारा बलिदान आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करेगा और  इसी में हमारी मृत्यु की सार्थकता है"....शायद इसी पक्ष को टैगोर अनदेखा कर गए..फिर भी मेरे विचार से एक बेहतरीन और  अदभुत प्रेम कथानक पर आधारित उपन्यास जिसे खुले दिमाग से पढ़ा जाना चाहिए.

Thursday 4 August 2011

I do not want to....


I do not want to live anymore ..I do not want to go further, I do not want to step ahead.. yes I do not want to live anymore..I want to end it right here, right now..I want to die coz my eyes do not see any reason or excuse to live for many more years ..there is nothing that is calling my name or asking me to stay ..there is nothing that give me a reason to wake early and sleep soon..my presence is not welcomed by people around me..my presence do not create a pleasant ambiance for them in fact it embarrassed them for more than anything. it makes them feel bad ..about ..I do not know why  but yes it do not please them at all...and it is even not pleasing for me too but I have to swallow this ....

so why not make all of them happy, why not make them feel comfortable and relaxed..yes coz I am a burden for everyone…coz  nobody have answers of my questions and I too do not have answers of their questions, specially  when I see my dear once getting troubled and puzzled because of me and I can not do anything to solve the situation and I know somewhere inside that  I am the one who is responsible for all the mess...and still unable to clean it up.... when I see, I am the one... so let me stop this unending yet no result yielding session here…let me stop this heavy journey that is snatching everything, every beautiful emotion and feeling that I ever posses.... and let us all breath in a free air, an air of  peace that now nothing will haunt either of us, no more shadows of past, present and future will chase me. no more worries and odds will bother.

some times people ask me, why want to die.. without seeing the colors of life you want to leave, you want to run away!!!! my usual reply, "do you mean to say that there is still something left to see, is there anything more, I have to bear, I have to listen and accept..no, in that case, a big no" ...I do not want to expend the process anymore... call it escape, call it turning the face, call it cowardliness, call it  anything...but I want to stop it right here, right now..as I have no more enthusiasms left ..coz its sucking my life blood from inside...

I do not want to live anymore, if the life will remain the same, I do not if  it is the only option I have to carry for the rest of the years.. I wont if there is a silent road waiting for me to tread with naked feet. Yes I do not want ..but I know that I have to..coz it is not easy to end our own life ..its easy to wish but tough to full fill that....yeah and that is enough reason or excuse  to drag this life on and on...coz I know that I cnt change it..I cnt change anything...no law of gravity or physic will work here ..I need new laws and new lawmakers..but where I can find them??...I need new world, new life..I desperately need a new life with new role and new roads...and the only way to get it is to end the old one.. so let me sleep with a dream of new life..hidden somewhere in high skies and in white clouds of heaven(If there is any..)

Wednesday 3 August 2011

रेलवे स्टेशन का हिन्दुस्तान

रेलवे स्टेशन बड़ी अजीब सी जगह होते हैं ..यहाँ आप को हर तरह के लोग दिखाई देंगे ...ए सी क्लास के एलीट यात्रियों से लेकर जनरल  क्लास की आम जनता जिनके लिए कोई सही title मुझे अभी सूझ नहीं रहा. चाहे प्लेटफ़ॉर्म हो या स्टेशन के बाहर का हिस्सा या ट्रेन.. लगभग हर जगह लोगों की भीड़ होती है ..सबके पास बैग हैं और दूसरा सामान  है...सबको कहीं ना कहीं जाना है, सबको ट्रेन का इंतज़ार है... अकेले  या अपने परिवार या दोस्तों के साथ ...हर किस्म के लोग.... खूबसूरत, सजे धजे, महंगे लगेज लेकर खड़े लोग.... कुछ ऐसे भी लोग जो पहनावे से और चेहरे से मामूली पृष्ठभूमि के नज़र आते हैं  ....


 पर खैर... मुझे स्टेशन पर और भी बहुत कुछ दिखता है...मैं जितनी बार भी रेलवे स्टेशन पर जाती हूँ ...चाहे किसी भी कारण से ( कारण बहुत हैं...खुद कहीं जाना हो या किसी को स्टेशन लेने जाना हो या ..आपका मन हो कि अपना वजन तौल के देखा जाए इसके लिए  doctor के पास क्या जाना...वहीँ स्टेशन पर जो मशीन लगी है उसका एक रुपये में सदुपयोग किया जाए....) यानि कुछ भी कारण हो... तो वहाँ मुझे जो दिखता है  वो ना तो लेटेस्ट dresses , suitcase , bags  या handbag  होते हैं और ना  लोगों के सुन्दर चमकते  चेहरे  ...मुझे वहाँ प्लेटफ़ॉर्म पर या रेलवे स्टेशन पर वहीँ कहीं आस पास या थोड़ी दूर यहाँ वहाँ सोये या बैठे लोग दिखते हैं...बेहद गंदे, मैले कपडे पहने ..जो कुछ भिखारी से लगते हैं..कहीं कहीं  पर कुछ गेरुए कपड़ों में साधू सन्यासी जैसे दिखने वाले लोग, कहीं कुछ ग्रामीण वेशभूषा में भी होते हैं..जिनके पास काफी सामान होता है..पता नहीं उनको कहाँ जाना होता है...देर रात या सुबह जल्दी या दिन के भी वक़्त ऐसे लोगों को प्लेटफ़ॉर्म पर या स्टेशन के अन्दर बाहर देखा जा सकता है..

ट्रेन के अन्दर का नज़ारा भी हर डिब्बे के हिसाब से  अलग होता है..A C  क्लास के बंद दरवाज़े और काले कांच वाली खिड़कियाँ जहां से कुछ अन्दर का नहीं दिखता वहीँ जनरल  क्लास के डिब्बे जिनमे लोगों को खड़े रहने की भी जगह मिल जाए तो बहुत है, लोग कैसे भरे रहते हैं.. शशि थरूर ने सही कहा था "cattle class " उन्होंने जिस भी सन्दर्भ में कहा हो पर ये शब्द इस जनरल क्लास के लिए बिलकुल मुफीद बैठते हैं ..मैं कई बार सोचती हूँ  कि लोग कैसे इन डिब्बों में  लम्बी दूरी का सफ़र करते हैं... खैर ये अलग किस्सा है ....अब ज़रा नज़र डालते हैं उन लोगों पर जो आपको दिन के किसी भी वक़्त और ख़ास तौर पर  रात के समय  आपको स्टेशन के अन्दर बाहर या पुल पर या प्लेटफ़ॉर्म पर दिख जायेंगे...इनके चेहरे देखकर कुछ अजीब सा लगता है  ..क्या इनका कोई ठौर- ठिकाना नहीं है ...

इनमे हर तरह के  लोग दिखेंगे.. बूढ़े, जवान, औरतें , बच्चे ...अपने कुछ गठरी नुमा सामान का तकिया या बिस्तर सा बना के सोते हुए या यूँ आराम फरमाते हुए कि जैसे प्लेटफ़ॉर्म नहीं उनके घर का कोई आँगन या कमरा है.... बिलकुल बेफिक्र होकर लेटे हुए..जैसे कि आस पास की हलचल से इनको कोई वास्ता ही नहीं,  लोगों का आना जाना, ट्रेन का गुजरना, रेलवे के announcements ...ये सब इनके लिए कोई अर्थ नहीं रखते..यात्री कई बार इनके बहुत पास से ज़रा सा  खुद को बचा कर निकलते हैं तब भी शायद  इनको कोई फर्क नहीं पड़ता या पड़े भी तो बहुत हुआ तो आपको एक नज़र उठा के देखेंगे और आप खुद को बेवजह ही असहज महसूस करने लगेंगे या फिर अपना मुंह फेर लेंगे और हुआ तो दिल में सोचेंगे कि ये सरकारी सिस्टम एकदम नाकारा है ..ना साफ़ सफाई है स्टेशन  पर  ना इन फ़ालतू लोगों को यहाँ से  हटाने  का कोई बंदोबस्त..
  ...कई बार मन में ख्याल आता है कि आखिर इन लोगों को कहाँ जाना है..जाना है भी या नहीं ..ये लोग यहाँ इस तरह क्यों बैठे हैं ...इनका कहीं कोई घर या कोई ठिकाना नहीं है क्या ..शायद नहीं है..वरना यहाँ  इस तरह क्यों बैठे होते.. उनकी  ज़िन्दगी इसी तरह प्लेटफ़ॉर्म पर या स्टेशन के अलग अलग कोनो में यहाँ से वहाँ सरकते ही गुज़र जाती होगी ... पर उनमे से कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनको  एक या दो दिन के लिए उस शहर में रुकना  हैं और प्लेटफ़ॉर्म से बेहतर रहने कि सस्ती और आसान  जगह उनके लिए दूसरी नहीं हो सकती.. कुछ ऐसे भी होंगे जिनकी अगली ट्रेन कुछ घंटों बाद आएगी इसलिए  वे लोग इंतज़ार कर रहे हैं ..लेकिन और भी बहुत से लोग हैं जो स्थाई रूप से शायद  स्टेशन पर ही रहते हैं ...

कई बार मैंने देखा है कि इन कोने में बैठे या सोये लोगों के साथ रेलवे कर्मचारी कैसे बेरहमी से पेश आते हैं..चाहे किसी सोते हुए को जोर से लात मार के जगाना या उनको कहीं एक कोने से मारते हुए हटाना.. ..एक घटना याद आ रही है, पता नहीं कौनसे स्टेशन पर देखा था ..कोई भिखारी सो रहा था स्टेशन के अन्दर वाले हॉल में ..तभी किसी रेलवे कर्मचारी की  नज़र पड़ी और उसने बहुत जोर से एक लात मारी उस सोये हुए इंसान की  पीठ पर और चीखते हुए उसे वहाँ  से जाने को कहा...वो ऐसा द्र्श्य था कि जिससे आँख फेर के निकलना मुश्किल लगा...लेकिन उसके बाद मैंने ऐसे कई और नज़ारे देखे हैं ..फिर चाहे वो दिल्ली  मेट्रो  स्टेशन की लिफ्ट में बार बार उतरते चढ़ते भिखारियों या मजदूरों के बच्चे हो ..जिन्हें कहीं जाना  नहीं होता बस लिफ्ट की  "सैर" करनी होती है...पर बहुत से  लोगों को ये पसंद नहीं आता कि ये सडकछाप बच्चे उनके साथ या उनकी तरह इस A C लिफ्ट में आये जाएँ..आखिर मेट्रो के लिए टैक्स हम देते हैं ..टिकेट हम खरीदते हैं..फिर ये लोग कौन हैं मुफ्त में इसका फायदा उठाने वाले..शायद यही वजह रही होगी कि एक दिन मैंने देखा एक अच्छा भला सभ्य सा  दिखने वाला आदमी उन बच्चों को गले से पकड़ कर  बुरी तरह पीट रहा था.. गालियाँ दे रहा था ...जाने क्या क्या कह रहा था ...

इन लोगों को देख कर लगता है कि भगवान् ने ज़िन्दगी तो  दी, इंसान भी बनाया, पर ये कैसी ज़िन्दगी . ,..कि जहां सारी दुनिया इन लोगों को नफरत से , वितृष्णा से या हिकारत से देखती है और ये लोग खुद अपने लिए क्या सोचते होंगे ....इस सवाल का जवाब मुश्किल  है..कभी ढूँढने की कोशिश नहीं की है .

ऐसा और भी काफी कुछ इन  रेलवे stations पर देखने को मिल जाएगा ...मसलन taxi ड्राईवर ..जो स्टेशन से बाहर आते ही आपको घेर लेते हैं ...अगर आप उस जगह पर नए हैं तो फिर इन taxi ड्राईवर कम guide से आपको कोई नहीं बचा सकता ...ऐसे में जब देर रात आप स्टेशन पर पहुंचे और taxi ढूंढ रहे हों तब आप आमतौर पर कोई बहुत भले या शरीफ दिखने वाले taxi ड्राईवर की उम्मीद नहीं करते ..ऐसा कहने के पीछे मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है उन drivers  के लिए..पर शायद उनका काम ही ऐसा है कि उनका चेहरा और भाषा सब उसी के अनुरूप हो जाती है ..

पर इस बार मैंने एक कुछ अलग सा देखा ...रात को ११:३०  बजे जब हम लोग ऑटो के लिए खड़े थे..उस वक़्त ..इतने टैक्सी वालों के बीच से  एक छोटा लड़का भी मुझे दिखाई दिया..उसकी उम्र रही होगी कुछ १५-१६ या १७ साल इस से ज्यादा तो नहीं होगी ..बेहद दुबला पतला ..कमज़ोर सा दिखता हुआ...रंग गोरा...चेहरे से बिलकुल साधारण या मासूम सा दिखता.. शायद एक झिझक सी या थकान  या ऐसा ही कुछ भाव  उसके चेहरे पर झलकता हुआ ...यकीन से नहीं कह सकती, पर आम तौर पर ऑटो वालों के चेहरे ऐसे नहीं होते  ...  एक नज़र देख कर यूँ लगेगा कि  हमारे आस-पड़ोस का ही कोई लड़का है ... काले रंग की या ऐसी  ही किसी और गहरे रंग की  पूरी बाहों की शर्ट और पैंट पहने हुए  .. ..गर्दन में मफलर लपेटा हुआ ..यानि पैर से लेकर गर्दन तक बिलकुल covered ...उसने आकर मुझसे  पूछा कि "ऑटो चाहिए" ...तब समझ आया कि वो ना तो यहाँ  किसी को लेने या छोड़ने आया है ना खुद उसको कहीं जाना है..वो यहाँ ऑटो  चलाता है ...


एक क्षण को  मैं हैरान रह गई  थी..इतना छोटा बच्चा..हाँ मैं तो उसे बच्चा ही कहूँगी ..ये क्या उसकी उम्र है इस तरह आधी रात को टैक्सी चलाने की .. अगर वो चुपचाप  यूँही एक कोने में खड़ा रहता तो कोई कह नहीं सकता था ये बच्चा ऑटो चलाता है ..पर निश्चित रूप से  उसकी कोई ज़रुरत है, कोई वजह है,  जो उसे  आम बच्चों से हट कर ये अलग ही काम करना पड़ रहा है..अब ये उसने अपनी पसंद से चुना है या जो रास्ता सामने आ गया वो ही ठीक है ..वाली बात हो गई..ये सब तो मैं नहीं जानती न पूछ  सकी कि भाई,  तुम ऑटो क्यों चलाते हो या और कोई काम क्यों नहीं करते या क्या तुम पढ़ते भी हो या तुम्हारा परिवार तुमसे कुछ नहीं कहता ..और भी ऐसे बहुत से  सवाल जो मन में  रह गए   ..ना मैंने उससे ये सब पूछा...पूछने की हिम्मत नहीं हुई या ज़रुरत महसूस नहीं हुई , ये कहना मुश्किल है ..पर मैं जितनी देर वहाँ खड़ी रही बस उस लड़के को देखती रही ..मेरी नज़रें उस पर से नहीं हट पा रही थीं...


और अभी भी जैसे वो चेहरा मेरी आँखों के सामने है..इतने दिन बाद भी अगर वो सामने आये  तो मैं उसे पहचान सकती हूँ. ...हम उसके ऑटो में  तो नहीं बैठे क्योंकि तब तक पापा ने कोई दूसरे ऑटो वाले से बात कर ली थी..पर रास्ते  भर  और घर पहुँच कर भी मैं उस छोटे से ड्राईवर के बारे में ही सोचती रही ..

कहने का अर्थ सिर्फ इतना ही है दुनिया जो हम देखते हैं  या देखना चाहते है ..वो उससे बेहद  अलग और बहुत सी विद्रूपताओं से भरी हुई है..जितना हम सोचते हैं या जहां तक हमारी  आँखें देख पाती है ...संसार का रंग और रूप उस सब से कहीं ज्यादा  बड़ा और भद्दा है ....पर इन सब काली भूरी मटमैली लकीरों के होते हुए भी हम दुनिया के इस कैनवास में अपने लिए कहीं से भी कैसे भी एक साफ़ सुरक्षित कोना बना ही लेते हैं..फिर इस बात से  कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि किस के हिस्से में कितना आया या आया भी कि नहीं ....